October 30, 2007

संविधान है राष्ट्रीय धर्मशसास्‍त्र

  • राम पुनियानी


इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्रीवास्तव ने एक निर्णय में कहा कि भगवत् गीता को राष्ट्रीय धर्मशा घोषित किया जाना चाहिए। जिस मामले के निर्णय में न्यायाधीश ने यह बात कही, वह दो भाइयों के बीच मंदिर के जमीन को बेचने के बारे में विवाद का था। मामले पर अपना निर्णय सुनाने के साथ-साथ न्यायाधीश ने अपनी राय भी लिख दी। उनका कहना था कि चूंकि हमारे राष्ट्रीय पशु, पक्षी इत्यादि हैं इसलिए हमारा राष्ट्रीय धर्मशा भी होना चाहिए और यह दर्जा गीता को दिया जाना चाहिए। न्यायाधीश ने पूरे देश को यह सलाह दी कि सभी नागरिकों को गीता में वर्णित धर्म का पालन करना चाहिए। विश्व हिंदू परिषद् इस निर्णय के सार्वजनिक होते ही मानो उछल पड़ी। विहिप के व्ही.पी. सिंघल ने कहा कि इस निर्णय का न्यायाधीश के हिंदू होने से कोई संबंध नहीं है : 'उन्होंने न्याय किया है, हिंदू के रूप में नहीं बल्कि न्यायाधीश के रूप में`।

गीता मूलत: क्षत्रिय योद्धा अर्जुन को दिया गया उपदेश है। युद्ध क्षेत्र में अपने सामने निकट संबंधियों को देखकर अर्जुन दुखी हो गए और युद्ध करने से पीछे हटने लगे। इस पर कृष्ण ने वैदिक धर्म और वर्ण व्यवस्था की व्याख्या करते हुए अर्जुन को यह समझाया कि अपने वर्ण के अनुरूप कार्य करना पाप नहीं है। उल्टे, अपने वर्ण द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी (जिसे वे धर्म कहते हैं) से भागने वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है। इसलिए, कृष्ण ने अर्जुन से कहा, आगे बढ़ो और युद्ध करो, फिर चाहे तुम्हें उनसे ही क्यों न लड़ना पड़े जो तुम्हारे सगे संबंधी हैं। कृष्ण ने यह भी कहा कि हमें अपने कर्मों के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि केवल कर्म करना ही हमारा धर्म है। गीता में कृष्ण यह भी कहते हैं कि जब-जब धर्म और वर्ण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था खतरे में पड़ती है तो वे उसकी पुर्नस्थापना के लिए अवतार लेते हैं।

अन्य धर्मों का तो सवाल ही नहीं उठता, कितने हिंदू पंथ इन विचारों से सहमत होंंगे? नाथ, सिद्ध, तंत्र और भक्ति परंपरा मानने वाले हिंदू इस उपदेश को पूरी तरह से खारिज करते हैं। बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों का हिंसा और युद्ध से कोई वास्ता है ही नहीं। गीता चाहे कितनी ही सम्मानीय क्यों न हो, वर्णाश्रम धर्म पर आधरित होने के कारण किसी भी स्थिति में वह दूसरे धर्म के लोगों को स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसी तरह अपने सारे गुणों के बावजूद यह राम, शंबूक और बाली के कबीले को कैसे स्वीकार्य हो सकती है? यहां तक कि महिलाएं, जो आज पुरुषांे के समान दर्जा पाने की इच्छुक हैं, वे तक गीता को स्वीकार नहीं कर सकतीं। आज यदि हमारे देश में कोई राष्ट्रीय धर्मग्रंथ है तो वह भारतीय संविधान है, जिसका लोग सम्मान कर सकते हैं और जिससे प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। एक व्यक्ति के रूप में न्यायाधीश श्रीवास्तव को यह स्वतंत्रता है कि वह इस या उस धर्मग्रंथ को मानें। परंतु गीता को राष्ट्रीय धर्मशा घोषित करने की बात अपने निर्णय में कहकर उन्होंने ने अपने पद का दुरूपयोग किया है।

कुछ वर्ष पहले इसी तरह का एक और निर्णय उच्चतम न्यायालय के जस्टिस वर्मा ने दिया था कि 'हिंदुत्व जीवन शैली है।` जस्टिस वर्मा के उस निर्णय का गत वर्षों में हिन्दुवादी सांप्रदायिक शक्तियों ने किस प्रकार का उपयोग किया, यह सर्वविदित है।

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