September 18, 2007

आजादी का संघर्ष आज भी चल रहा है

मेरे मन में बार-बार यह सवाल आता है कि १५ अगस्त १९४७ को हम किस रूप में लें। क्या वह भारतीय राष्ट्रवाद के चरम उत्कर्ष का दिन था-क्योंकि एक गुलाम राष्ट्र उस रोज विदेशी वर्चस्व से मुक्त हुआ था, या कि उसके चरम पतन का दिन-क्योंकि राष्ट्र उस रोज विखंडित हो गया था। आजादी की लड़ाई में चाहे जितनी अहिंसा बरती गयी, आजादी का आगमन हिंसा की भयावहता के साथ हुआ था। अमानवीयता की हदें पार करते भीषण सांप्रदायिक दंगे, लूट, बलात्कार, विश्वासघात और क्रूरता को भूल जाना इतिहास के साथ धोखा-धड़ी होगी। ऐसे परिदृश्य के बीच स्वतंत्रता की व्याख्या हम किस रूप में करें, तय करना मुश्किल होता है।
लेकिन हमारे बूर्जुआ इतिहासकारों, शिक्षकों और नेताओं ने बार-बार १५ अगस्त की महानता के इतने पाठ पढ़ाये हैं और आज इन सबसे हमारा मन इतना प्रदूषित है कि इतिहास के दूसरे पहलू को हम बिल्कुल भूल चुके हैं। ताज्जुब होता है कि सूक्ष्म इतिहास बोध के राजनेता नेहरू ने खून से लथ-पथ आधी रात को जब 'नियति से भेंट` वाला प्रसिद्ध भाषण दिया तब भी उन पर इस वातावरण का कोई असर नहीं था। वे तो मानो कविता-पाठ कर रहे थे : 'आधी रात को ॥जब दुनिया सो रही होगी, भारत जाग उठेगा..`

दुनिया सो नहीं रही थी। संसद भवन के बाहर दंगे-फसाद हो रहे थे, अस्मतें लूटी जा रही थीं और लाखों लोग अपना-अपना वतन छोड़ कर अपने-अपने देश की ओर भाग रहे थे।

हालांकि तब भी ऐसे लोग थे जिन्होंने 'यह आजादी झूठी है` का नारा दिया था। उनके हाथ में अखबार नहीं थे और उनके नारों को संजोकर रखने वाले इतिहासकार भी नहीं थे, इसलिए उनके बारे में नयी पीढ़ी को जानकारी बहुत कम है। लेकिन सच्चाई है कि भारत के बड़े हिस्से में आजादी के प्रति एक उदासीनता का भाव था। 'देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है` जैसे नारे पूरे भारत के गांव-कस्बों में लगाये गये थे। राष्ट्रपिता कहे जाने वाले आजादी के सबसे बड़े सेनानी ने स्वयम् को आजादी के उत्सव से अलग रखा था। वह उनके शोक का दिन था।

आज साठ साल बाद पूरे घटनाक्रम पर विचार करना एक अजीब किस्म की अनुभूति देता है। आजादी के संघर्ष के इतिहास की जिस तरह भारत-व्याकुल भाव से व्याख्या की गई है, वह हमें और अधिक उलझाव में डालता है। उसके अंतरविरोधों को सामने रखना सीधे देशद्रोह माना जा सकता है। किसी देश-समाज में इतिहास और 'नायकों` के प्रति ऐसी गलद्श्रुतापूर्र्ण भक्ति देखने को नहीं मिलती। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ वर्षों में हमारे समाज में मानसिक गुलामी ज्यादा बढ़ी है।

जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तब विभिन्न तबकों ने अपने-अपने ढंग से अपनी भावनाओं का इजहार किया था। गांधी नि:संदेह बड़े नेता थे और उनका प्रभाव भी था लेकिन उनकी कमजोरियां भी थीं। उस समय ही आंबेडकर और जिन्ना ने उनसे असहमति जाहिर की थी। आज का समय होता तो शायद दोनों देशद्रोही करार कर जेलों में ठूंस दिये जाते।

आंबेडकर ने तो आजादी की सैद्धांतिकी पर ही सवाल खड़ा किये थे। आजादी के संघर्ष और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने अंतर किया। तथाकथित स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लोग स्वतंत्रता या आजादी को सीमित अर्थों में ले रहे थे। आंबेडकर ने उसे विस्तार से लेने का आग्रह किया। भारत का बूर्जुआ तबका, जो जाति के हिसाब से हिन्दू-मुसलामानों का सवर्ण-असराफ तबका भी था, अंग्रेजों से विमुक्तता को ही आजादी मान कर संतुष्ट था-क्योंकि भारत का राज-पाट अब उसके जिम्मे था। एक व्यक्ति, एक वोट के अधिकार वाले जनतंत्र के साथ राजनीतिक आजादी तो सब को मिल गयी थी लेकिन सामाजिक-आर्थिक आजादी देने मेंे वह अडंग़े डाल रहा था। आंबेडकर ने कहा-'राजनीति में समत्व रहेगा और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में विषमता रहेगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे, पर सामाजिक और आर्थिक संरचना में हम एक व्यक्ति एक मूल्य का सिद्धांत स्वीकार नहीं करेंगे। अन्तरविरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समत्व से कब तक इनकार करते रहेंगे? यदि हम अधिक दिनों तक इसे इनकार करते रहे तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। हमें अंतरविरोधों को यथासंभव शीघ्र खत्म कर देना चाहिए। अन्यथा जिस राजनीतिक लोकतंत्र को इस सभा ने इतने परिश्रम से तैयार किया है, उसकी संरचना को विषमता के शिकार लोग उड़ा देंगे।`

भारत के शासक तबके ने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास पर अंग्रेज विरोधी भाव को इतना घनीभूत कर दिया कि हम सामंतवादी-ब्राह्मणवादी गुलामी को पूरी तरह नजरअंदाज कर गये। इससे समाज के शासक तबके का स्वार्थ सधा और गुलामी का एक बड़ा फलक विकसित हुआ। इसलिए भारत के आधुनिक इतिहास पर नये सिरे से विमर्श की जरूरत है। यहां तक कि अंग्रेजों की भूमिका पर भी हमें नये ढंग से चिन्तन करना चाहिए। पलासी का युद्ध अंग्रेज क्यों जीत सके? पेशवा और मराठों का हारना क्यों जरूरी हुआ? १८५७ के विद्रोहों की सामाजिकता और सैद्धांतिकी क्या थी? कांग्रेस के पूना जलसे पर तिलक के नेतृत्व में ब्राह्मणवादियों का कब्जा कैसे हुआ? कंाग्रेस के रैडिकल और मॉडरेट ईकाइयों में कौन प्रगतिशील और कौन प्रतिगामी था? गांधी आखिर समय तक वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्षधर कैसे और क्यों बने रहे? जैसे सवालों पर नयी पीढ़ी को विस्तार से जानने का हक बनता है। आजादी के इतिहास का चालू पाठ इतना इकतरफा और एकरस है कि उसके सहारे हम नयी पीढ़ी की स्वतंत्र मानसिकता का विस्तार देने में अक्षम हैं। फ्रांस में राज्यक्रांति के रूप में स्वतंत्रता का जो संघर्ष हुआ था उसके पार्श्व में रख कर हमें अपने स्वतंत्रता आंदोलन को खंगालना चाहिए। हमारे संघर्ष में रूसों और वाल्तेयर नहीं हैं। हमने तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भी केवल इसलिए पूजा की कि उन्हें नॉवेल पुरस्कार मिल गया था। उनके 'गोरा` से हमने कुछ नहीं सीखा।

क्या हमने इस बात पर विचार किया है कि आजादी का संघर्ष आज भी अनेक रूपों में चल रहा है? दलित-पिछड़े-आदिवासी और मिहनतकश-गरीब आज भी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका संघर्ष बुद्ध, कबीर, फुले, मार्क्स, आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में हो रहा है। गांधीवादी जमात के लोग या तो तटस्थ हैं या फिर इनके खिलाफ बंदूक और गीता लेकर खड़े हैं। फिर भी लड़ाई चल रही है।
आप इस लड़ाई में किस ओर हैं?

  • प्रेमकुमार मणि

आज के तुलसीगण

साहित्‍य

  • प्रमोद रंजन

किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अंत:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? -मुक्तिबोध

लोचना की इस ठोस कसौटी को उपेक्षित किए जाने के निहित कारण रहे हैं। प्रखर आलोचक मुक्तिबोध ने आलोचना का प्रतिमान गढ़ते हुए 'राजनैतिक दृष्टिकोण ` की चर्चा नहीं की है! लेकिन क्या मुक्तिबाध के आलोचक रूप की उपेक्षा का यही कारण है? या इस उपेक्षा के पीछे वे शक्तियां हैं जो राजनैतिक रूप से परिवर्तनकामी दिखती हैं किन्तु 'सामजिक और सांस्कृतिक` रूप से प्रतिगामी हैं। मुक्तिबोध इन्हीं शक्तियों की पहचान का आह्वान करते हैं। वह प्रकट राजनीतिक दृष्टिकोण को गौण रखते हुए उन 'प्रेरणाओं और भावनाओं` पर बल देते हैं, जिससे साहित्य के आंतरिक तत्व रूपायित हुए हैं। उनकी यह कसौटी राजनीति से पलायन नहीं करती बल्कि बौद्धिक छद्मों को विखंडित करने का सूत़्र देती है। समकालीन हिन्दी साहित्य पर विचार करने के लिए मुक्तिबोध की इस कसौटी को निरंतर ध्यान में रखना चाहिए। बानगी के तौर पर इस कसौटी के आधार पर यहां हम समकालीन हिन्दी कविता पर विचार कर सकते हैं। बेहतर होगा कि आरंभिक तौर पर, सुविधा के लिए इसे एक क्षेत्र विशेष के संदर्भ में ही देखा जाए। मसलन, हम बिहार के समकालीन कवियों की राजनीतिक प्रवृतियों के उत्स की तलाश इस सूत्र के आधार पर करें।


बिहार की समकालीन हिन्दी कविता की राजनीतिक प्रवृतियों की पहचान से पहले यह सहज प्रश्न आएगा कि क्या बिहार की अपनी कोई अलग 'हिंदी कविता` संभव है? क्या बिहार की हिन्दी कविता को भौगोलिक आधार पर अन्य प्रांतों की कविता से अलगाया जा सकता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर-'नहीं` होगा। जैसा कि मैंने ऊपर कहा यह सुविधा के लिए किया गया वर्गीकरण है। 'बिहार के कवि` अर्थात् वे, जिनकी काव्य संवेदना के निर्माण में बिहार की 'आंचलिकता` का योगदान है। वय और 'चर्चा` के अनुरूप इनमें से चार को प्रतिनिधि के तौर पर चुना जा सकता है-नागार्जुन, अरुण कमल, मदन कश्यप और संजय कुंदन। संभवत: इस बात को स्वीकार करने वाले अनेक होंगे कि इनमें सबसे गहरी और प्रगतिशील काव्य-संवेदना नागार्जुन की थी। उन्होंने ढेर सारी राजनीतिक कविताएं लिखीं। १९७४ में जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन ने लिखा 'इन्दु जी, इन्दु जी/क्या हुआ आपको/सत्ता के मद में/भूल गइंर् बाप को` बहुसंख्यक जनता है। कवि यहां बाबा नागार्जुन की तरह सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा; वह जनता को गल़ीज़ बता रहा है। नागार्जुन जिसके पक्ष में सत्ता को चुनौती दे रहे थे अरुण यहां उसे ही गाली तक देने से नहीं चूकते। कविता की अंतिम पंक्तियों में वह रण दुदुंभी बजाते हैं । यह उस सत्ता को खुली चुनौती थी, जो जनता की स्वतंत्रता बाधित करने पर तुली थी। कवि जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इंदिरा को ललकार रहा था। आपातकाल के बाद बिहार में भी इंदिरा गांधी के वैचारिक विरोधियों की सरकार बनी। नई सरकार ने १९७८ में यहां उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। तब अरुण कमल ने लिखा 'फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते`। इस कविता में 'एक दूसरे की गर्दनों पर दांत पजाते` 'लाखों भुक्खड़`'मारे गए दस जन/मरेंगे और भी../बज रहा जोरों से ढोल/बज रहा जोरों से ढोल/ढोल`। कौन हैं ये 'दस जन`? 'मरेंगे और भी` पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह 'दस जन` नब्बे जनों के विरूद्ध एक रूपक है। कविता की पृष्ठभूमि में आरक्षण लागू होने के बाद बिहार में हुई हिंसा की एक घटना है, जिसमें उच्च सामाजिक समुदाय के लोग मारे गए थे। कवि अपने उच्च समाजिक समूह के ठंडेपन से व्यथित है 'खड़े रहो यूं ही कतारबद्ध/अपने घरों को ओटों पर/अभी और भी गुजरेंगी लाशें/इस रास्ते होकर..।` उन्हीं की युयुत्सा जगाने के लिए 'जोरों से ढोल` पीटा जा रहा है। बाद के संग्रहों में संकलित हिंसा के कथित विभिन्न रूपों को चित्रित करने वाली अरुण जी की कुछ अन्य कविताओं की ही तरह यहां भी सिर्फ उच्च सामाजिक समूहों के विरूद्ध 'बढ़ती हिंसा` कवि की चिंता और आक्रोश का विषय है। कवि का पूरा जोर की फौज के विरूद्ध युद्ध की मुनादी (ढोल) करवाने पर है। यह अकारण नहीं है कि कविता का शीर्षक 'भूखे कुत्तों`'युद्ध क्षेत्र` रखा गया है और वह एक अतिरिक्त 'ढोल` शब्द के साथ खत्म होती है: 'बज रहा जोरों से ढोल /ढोल`। विडंबना ही है कि यह ढोल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ-साथ उच्च समाजिक समूहों से आने वाले अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी भी बजाते हैं। 'युद्ध क्षेत्र` १९८० में आए अरुण कमल के 'बहुचर्चित` प्रथम कविता संग्रह 'अपनी केवल धार` में संकलित है। उस संग्रह में कुछ और कविताएं इसी आशय और मिजाज की हैं।
१९९० के बाद देश भर में वर्ण व्यवस्था में शोषित रही जनता की राजनैतिक ताकत बढ़ने लगी। नागार्जुन ने 'जय-जय हे दलितेंद्र/आपसे दहशत खाता केंद्र/मायावती आपकी शिष्‍या ...गुरु-गुन मायावती` लिखकर इस ऐतिहासिक घटना का प्रकारांतर से 'इतिहास के अचेतन उपकरण` (अनकंशेस टूल ऑफ हिस्ट्री) के रूप में स्वागत किया। तस्वीर उस समय भी इतनी साफ थी कि ऐसा नहीं माना जा सकता कि बाबा नागार्जुन कांशीराम की अवसरवादिता, सामाजिक न्याय की व्यक्ति केंद्रित राजनीति के विरोधाभासों को नहीं समझ रहे थे। लेकिन उन्होंने इन परिवर्तनों को बहुसंख्यक जनता की नजर से भी देखा। इसी समय अरुण कमल ने बिहार के संदर्भ में लिखा 'बिना मुंडेर वाली छत से वह दिन भर मूतता रहा/आते जाते किसी भी आदमी के सिर पर खल खल`। यह साफ तौर पर एक अभिजात भवि य-दृष्टि ही थी जिसके प्रभाव में उन्होंने इस कविता में घोषणा की कि 'बीसवीं शताब्‍दी के एक और अजूबा` की मौत 'अपने ही खून और पेशाब` में डूब कर होगी।


'नए इलाके में` (१९९५) में संकलित 'असत्य के प्रयोग` शीर्षक इस कविता की ओर यात्री बाबा पर लिखते हुए (तुमि चिर सारथी, पहल द्वारा जारी पुस्तिका) मैथिली कथाकार तारानंद वियोगी का भी ध्यान गया था। 'साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत` इस संग्रह में अनेक कविताएं इसी भाव-भंगिमा की हैं!


क्या कारण है कि वंचितों के प्रति पक्षधरता की हर संभव कोशिश करने वाला हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि इन ऐतिहासिक घटनाओं की प्रगतिशीलता को पकड़ने में चूका ही नहीं बल्कि अभद्रता की हदों तक प्रतिगामी हो चला? फिलहाल इसके कारणों को अनुत्तरित छोड उन लक्षणों पर गौर करें जो अरुण जी के साथ-साथ उनके अन्य परवर्ती कवियों में मौजूद हैं। अरुण कमल सामाजिक न्याय की परिघटना को बीसवीं शताब्‍दी का 'अजूबा` के रूप में देखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के मदन कश्यप को लगता है कि 'सिंहासन पर जा बैठा जोकर` (जोकर), 'सामाजिक न्याय की खिचड़ी पक रही` है और 'नए युग के कृष्‍णावतार /माखन की जगह चारा चुरा रहे` हैं (छवि की चिंता)। इसी तरह संजय कुंदन अचानक पाते हैं कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जहां 'गद्देदार कुर्सी पर बैठा एक विदूषक /अपने अज्ञान पर कतई शर्मिंदा नहीं है`। उन्हें हर तरफ मूर्खों की 'दीमकों की तरह बजबजाती हुई भीड़` नजर आती है।


इन कविताओं में आने वाले अजूबा, जोकर, खिचड़ी, भीड़ आदि शब्द एक खास मन:स्थिति का पता देते हैं । इनमें बौखलाहट और हताशा है जिसका मूल स्वर दुर्वाशा के शाप की तरह का है। धमकी भरा और महानता की घृणा से बजबजाता। क्या यह अनायास है कि इन 'प्रतिनिधि` कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अरुण कमल में घृणा की यह बजबजहाट सबसे ज्यादा है? (प्रसंगवश, यह भी कि इस मामले में अन्य 'प्रतिनिधियों` से मदन कश्यप की कविता जरा पीछे है) इस घृणा का उत्स ढ़ूंढ़ने से पहले यह देख लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसी कविताओं को कौन सी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शक्तियां प्रतिष्‍ठा देती रही हैं।


अरुण कमल की ज्यादातर कविताओं को 'निस्सार` बताने वाले तथा उन्हें 'नए इलाके में` पर मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९९८) को, खराब कृति पर 'अवांतर` कारणों से प्रदत्त, बताने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल का उसी लेख में 'असत्य के प्रयोग` पर आह्लादित मत दृष्‍टव्य है : ('शताब्दी के अंत में कविता` शीर्षक लेख, कसौटी, अंक-१, अप्रैल-जून,१९९९) क्या यह बताने की आवश्यकता है कि "पाठकों से अपेक्षा है कि वे इस कविता को पूरा पढ़ें और बिहार के वर्तमान तानाशाह की भावी स्थिति का आनंद लें-अपने ही खून और पेशाब में डूबा /पड़ा है बीसवीं सदी का अजूबा। जैसी घृणा का पात्र वह तानाशाह है, उसके लिए वैसे ही घृणित शब्दों का अरुण कमल ने प्रयोग किया है। इस तरह यह कविता अर्थ और शब्द की एकता से होने वाले विस्फोट का एक सटीक उदाहरण है।"'खून और पेशाब` में लिथड़े किसी भी आदमजात को देखकर आनंद लेने की सलाह देना किस मानसिकता का परिचायक है। इस घृणित कविता पर आनंदित श्री नंदकिशोर नवल की कल्पना में भी शायद यह बात नहीं आती कि निकट भविष्‍य में ही वंचित सामाजिक समूहों से आने वाला विवेकवान पाठक उनका जिक्र आने पर चाह कर भी सभ्य भाषा का प्रयोग नहीं कर सकेगा। यहां एक रोचक बात यह भी जाननी चाहिए कि 'नए इलाके में` के बाद आए संग्रह 'पुतली में संसार` (२००६) को अरुण जी ने इन्हीं 'आदरणीय डॉ. नंदकिशोर नवल जी को कृतज्ञतापूर्वक` समर्पित किया है।(क्यों? सुधी पाठक स्वयं बूझें !)


इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि नामवर सिंह जैसे प्रखर आलोचक, इन मुद्दों पर चिंतन करने बावजूद आजीवन समझौतापरस्त रूख अपनाए रहे हैं। सवर्णवादी साहित्य और आलोचना के सवाल पर उनकी दलील होती है कि 'हमारे समाज पर एक हजार वर्षों के जो बद्धमूल संस्कार हैं उसे खत्म करने के लिए एक हजार बरस का समय अगर न भी लगे तो कम से कम सौ-दो सौ साल का समय तो लगेगा ही।..उनसे कोई साहित्यकार अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद बचा नहीं रह सकता। ऐसे में आलोचक बचा रहेगा इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है?` (लीलाधर मंडलोई के सवाल पर नामवर सिंह, वर्तमान साहित्य का अलोचना अंक-३, जुलाई, २००२) इस यथास्थितवादी वक्तव्य को न तो व्याख्या की आवश्कता है, न ही यह सवाल खड़ा करने की कि १९३६ से चले जिस प्रगतिशील आंदोलन की प्रशंसा करते नामवर जी नहीं अघाते, उसका हासिल अखिर क्या है! इस 'सौ-दो सौ` साल का प्रस्थान बिंदु कब से माना जाए? और यह कि भारतीय समाज में वे 'अवांतर` कारक क्या हैं , जिनके आधार पर साहित्यिक समाज, संस्थाएं भी फैसले देती हैं?


उपरोक्त 'प्रतिनिधि` कवियों के अलावा एकदम नए कवियों का जिक्र भी यहां प्रासंगिक होगा, जिनका काव्य व्यक्तित्व अभी निर्मित ही होने की प्रक्रिया में है। वर्ष २००० के बाद परिदृश्य में आए बिहार के इन नए कवियों का रूख थोड़ा अलग है। उनमें तुर्शी तो है लेकिन वैसी बौखलाहट नहीं है जैसी उनके पूर्ववर्तियों में रही है। वे इन राजनैतिक परिवर्तनों के प्रति उपहास का रूख नहीं रखते, उन्हें मूर्ख नहीं कहते-लेकिन उन्हें स्वीकार भी नहीं करते। वास्तव में इन नयों में पूर्ववर्तियों के ही दृष्टिकोण का एक किस्म का रूपांतरण है। मसलन, हरेप्रकाश उपाध्याय 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में कहते हैं : 'हम शिकायत नहीं करते/माथे के दर्द को दर्द नहीं कहते /हमें दो कौड़ी का बनिया गलिया देता है` (नया ज्ञानोदय, मई २००७ )। यहां सीधे तौर पर कोई राजनैतिक आग्रह नहीं है लेकिन मदन कश्यप के 'कृष्‍णावतार ` की तुलना में 'दो कौड़ी का बनिया` एकदम स्पष्‍ट शब्‍दावली है जो एक निश्चित सामाजिक समूह को अवहेलना की दृष्टि से देखती है। यह शब्दावली बताती है कि एक सामजिक समूह के रूप में बनिए की श्रेणीबद्धता निचली है-दो कौड़ी की है। कोई और सामाजिक समूह है, जिसे कौड़ियों में नहीं तौला जा सकता, वह अमूल्य है। नया कवि उसी के पक्ष में है, उसी के मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है।
बहरहाल, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो यह कुछ आंतरिक तत्व हैं जो इन 'प्रतिनिधि` कवियों की कविताओं में रूपायित हुए हैं। अब उस प्रश्न की ओर लौटें कि अनेक अच्छी कविताएं देने वाले संवेदनशील कवियों की ऐसी प्रतिक्रियावादी, इतिहास-विमुख, एकांगी मनोदशा का उत्स कहां है? मुक्तिबोध साहित्य के आंतरिक तत्व की 'प्रेरणाओं और भावनाओं` की पहचान के साथ-साथ इस बात पर बल देते हैं कि उसके पीछे की 'सामाजिक और मनोवैज्ञानिक` शक्तियों की भी पहचान की जाए।


नए कवि हरेप्रकाश उपाध्याय तो इन शक्तियों का पता उपरोक्त 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में ही दे देते हैं 'हम उन घरों से आए हैं/जहां भूखे रहकर मली जाती है मूंछ पर घी/जहां चार पैसे के लिए घर के भीतर टन्न-पुन्न हो जाती है/और दरवाजे पर बंधी रहती है हाथी की जंजीर`। 'दो कौड़ी का बनिया` जैसी हिंसक अभिव्यक्ति उसी सामंती परिवेश से आती है जहां भूखे रहकर मूंछों पर घी मलने का चलन रहा हो। सामाजिक न्याय का अचार बांधे कृष्‍णावतारों को देखने वाले मदन कश्यप जब अपने अतीत में झांकते हैं तो पाते हैं कि "मां के बक्से में 'कल्याण` की कुछ प्रतियां और नानी की चिट्ठयां थीं/पिता के संदूक में सन् ४८-४९ की कुछ फिल्मी पत्रिकाएं"। (शायद वे 'फिल्मी पत्रिकाएं` ही हैं, जो मदन जी को जरा कम प्रतिगामी बनाती हैं) वंचित तबकों के पक्ष में जाने वाले राजनैतिक माहौल के निकट से गुजरते हुए संजय कुंदन को लगता है कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जबकि उन्हें पिता को 'जनेऊ पर गंगाजल छिड़कते हुए (देखते)/लगता है/जैसे पूरी दुनिया को ही स्वच्छ बनाने में जुटे हों पिता` (पिता की बेचैनी)। बहुसंख्यक जनता को रोटी के एक टुकड़े के लिए कुत्ता का संबोधन देते हुए 'भुक्खड़` बताने वाले अरुण कमल के अब तक आए चारो कविता संग्रह उस विनयपत्रिका से शुरू होते हैं जहां तुलसीदास भीख मांगने की मुद्रा में हैं 'विनयपत्रिका दीन की, बापू! आपु ही बांचो..`। अरुण जी की अंतिम इच्छा भी उसी कर्मकांडी परिवेश का पता देती है 'ओ विराट गंगा पहला स्नान यहीं ,अंतिम स्नान भी यहीं`। (गंगा को प्यार)


मुक्तिबोध की कसौटी यह भी चाहती है कि इस साहित्य के प्रभावों, सामाजिक शक्तियों द्वारा इसके उपयोग-दुरूपयोग तथा सामान्य जन पर इसके प्रभावों की भी गहनता से पहचान की जाए। किन्तु विस्तार संकोच के कारण यहां सिर्फ इतना कि यदि उच्च सामाजिक समूह से आए साहित्यिक की प्रतिबद्धता नागार्जुन की तरह 'बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त` जैसी भी न हो, मुक्तिबोध की भांति मस्तककुंड में जलती ज्वाला; सत्-चित-वेदना न हो तो स्वभावत: कच्चे माल के रूप में आंचलिकता के पुनसृजित रूप को किसी भौगोलिक भूखंड से अधिक रचनाकार का संस्कारगत परिवेश तय करने लगता है। जैसा कि हम बिहार के उन 'प्रतिनिधि` कवियों को पढ़ते हुए पाते हैं, जिनकी पृष्‍ठभूमि में सामंती-कर्मकांडी संस्कार रहे हैं। इसका प्रमाण कर्मकांडी पृष्‍ठभूमि के उच्च सामाजिक समूहों से आने वाले कवियों और वंचित समुदाय से आने वाले कवियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए भी पाया जा सकता है। कर्मकांडी-अभिजात पृष्‍ठभूमि वाले कवि जिसे मसखरा, जोकर और माथा पर मूतने वाला कहते हैं उसी राजनीतिक परिदृश्य के बारे में शोषित समुदाय से आने वाले कवि मुसाफिर बैठा की कविता देखें-लंगड़ा ही सही /अब लोकतंत्र आ गया है /जिसमें एकलव्यों के लिए भी पर्याप्त स्पेस होगा /चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण!!

मध्ययुगीन भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू

धरोहर

  • मुक्तिबोध

सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध गंभीर चिंतक भी थे। भक्ति आंदोलन पर उनका यह आलेख कई दृष्टियों से आज भी प्रासंगिक है। पहली दफा यह 'नयी दिशा` पत्रिका में मई १९५५ में प्रकाशित हुआ था। -संपादक



मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिन्दी-क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग है, उनमें भी तुलसीदासजी इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्‍त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता रहता है? समाज के पारिवारिक क्षेत्र में इस कट्टरपन को अब नये पंख भी फूटने लगे हैं। खैर, लेकिन यह इतिहास दूसरा है। मूल प्रश्न जो मैंने उठाया है उसका कुछ-न-कुछ मूल उत्तर तो है ही।

मैं यह समझता हूं कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। कबीर हमें आपेक्षिक रूप से आधुनिक क्यों लगते हैं, इस मूल प्रश्न का मूल उत्तर भी उसी सांस्कृतिक इतिहास में कहीं छिपा हुआ है। जहां तक महाराष्ट्र की सन्त-परम्परा का प्रश्न है, यह निर्विवाद है कि मराठी सन्त-कवि, प्रमुखत:, दो वर्गों से आये हैं, एक ब्राह्मण और दूसरे ब्राह्मणेतर। इन दो प्रकार के सन्त-कवियों के मानव-धर्म में बहुत कुछ समानता होते हुए भी, दृष्टि और रुझान का भेद भी था। ब्राह्मणेतर सन्त-कवि की काव्य-भावना अधिक जनतन्त्रात्मक, सर्वांगीण आर मानवीय थी। निचली जातियों की आत्म-प्रस्थापना के उस युग में, कट्टर पुराणपन्थियों ने जो-जो तकलीफें़ इन सन्तों को दी हैं उनसे ज्ञानेश्वर-जैसे प्रचण्ड प्रतिभावन सन्त का जीवन अत्यन्त करुण कष्टमय और भयंकर दृढ़ हो गया। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानेवश्वरी तीन सौ वर्षों तक छिपा रहा। उक्त ग्रन्थ की कीर्ति का इतिहास तो तब से शुरू होता है जब वह पुन: प्राप्त हुआ। यह स्पष्ट ही है कि समाज के कट्टरपन्थियों ने इन सन्तों को अत्यन्त कष्ट दिया। इन कष्टों का क्या कारण था? और ऐसी क्या बात हुई कि जिस कारण निम्न जातियां अपने सन्तों को लेकर राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में कूद पड़ीं?

मुश्किल यह है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के सुसम्बद्ध इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है। हिन्दू इतिहास लिखते नहीं थे, मुस्लिम लेखक घटनाओं का ही वर्णन करते थे। इतिहास-लेखन पर्याप्त आधुनिक है। शान्तिनिकेतन के तथा अन्य पण्डितों ने भारत के सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र में बहुत अन्वेषण किये हैं। किन्तु सामाजिक-आर्थिक विकास के इतिहास के क्षेत्र में अभी तक कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुआ है।
ऐसी स्थिति में हम कुछ सर्वसम्मत तथ्यों को ही आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

(१) भक्ति-आन्दोलन दक्षिण भारत से आया। समाज की धर्मशाव़ादी वेद-उपनिषद्वादी शक्तियों ने उसे प्रस्तुत नहीं किया, वरन् आलवार सन्तों ने और उनके प्रभाव में रहनेवाले जनसाधारण ने उसका प्रसार किया।

(२) ग्यारहवीं सदी से महाराष्ट्र की गरीब जनता में भक्ति आन्दोलन का प्रभाव अत्यधिक हुआ। राजनैतिक दृष्टि से, यह जनता हिन्दू-मुस्लिम दोनों प्रकार के सामन्ती उच्चवर्गीयों से पीड़ित रही। सन्तों की व्यापक मानवतावादी वाणी ने उन्हें बल दिया। कीर्तन-गायन ने उनके जीवन में रस-संचार किया। ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि सन्तों ने गरीब किसान और अन्य जनता का मार्ग प्रशस्त किया। इस सांस्कृतिक आत्म-प्रस्थापना के उपरान्त सिर्फ एक और कदम की आवश्यकता थी।

वह समय भी शीघ्र ही आया। गरीब उद्धत किसान तथा अन्य जनता को अपना एक और सन्त, रामदास, मिला और एक नेता प्राप्त हुआ, शिवाजी। इस युग में राजनैतिक रूप से महाराष्ट्र का जन्म और विकास हुआ। शिवाजी के समस्त छापेमार युद्धों के सेनापति और सैनिक, समाज के शोषित तबकों से आये। आगे का इतिहास आपको मालूम ही है-किस प्रकार सामन्तवाद टूटा नहीं, किसानों की पीड़ाएं वैसी ही रहीं, शिवाजी के उपरान्त राजसत्ता उच्च वंशोत्पन्न ब्राह्मणों के हाथ पहुंची, पेशवाओं (जिन्हें मराठे भी जाना जाता रहा) ने किस प्रकार के युद्ध किये और वे अंगेजों के विरूद्ध क्यों असफल रहे, इत्यादि।

(३) उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों का संघर्ष बहुत पुराना है। यह संघर्ष नि:सन्देह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र में अनेकों रूपों में प्रकट हुआ। सिद्धों और नाथ-सम्प्रदाय के लोगों ने जनसाधारण में अपना पर्याप्त प्रभाव रखा, किन्तु भक्ति-आन्दोलन का जनसाधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं। पहली बार शूद्रों ने अपने सन्त पैदा किये, अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा सिंपी, सेना नाई, आदि-आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की। समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था। वह हुआ, तकलीफें हुई। लेकिन एक बात हो गयी।
शिवाजी स्वयं मराठा क्षत्रिय था, किन्तु भक्ति-आंदोलन से, जाग्रत जनता के कष्टों से, खूब परिचित था, और स्वयं एक कुशल संगठक और वीर सेनाध्यक्ष था। सन्त रामदास, जिसका उसे आशीर्वाद प्राप्त था, स्वयं सनातनी ब्राह्मणवादी था, किन्तु नवीन जाग्रत जनता की शक्ति से खूब परिचित भी था। सन्त से अधिक वह स्वयं एक सामन्ती राष्ट्रवादी नेता था। तब तक कट्टरपंथी शोषक तत्वों में यह भावना पैदा हो गयी थी कि निम्नजातीय सन्तों से भेदभाव अच्छा नहीं है। अब ब्राह्मण-शक्तियां स्वयं उन्हीं सन्तों का कीर्तन-गायन करने लगीं। किन्तु इस कीर्तन-गायन के द्वारा वे उस समाज की रचना को, जो जातिवाद पर आधारित थी, मजबूत करती जा रही थीं। एक प्रकार से उन्होंने अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया था। दूसरे, भक्ति आन्दोलन के प्रधान सन्देश से प्रेरणा प्राप्त करनेवाले लोग ब्राह्मणों में भी होने लगे थे। रामदास, एक प्रकार से, ब्राह्मणों में से आये हुए अन्तिम सन्त हैं, इसके पहले एकनाथ हो चुके थे। कहने का सारांश यह कि नवीन परिस्थिति में यद्यपि युद्ध-सत्ता (राजसत्ता) शोषित और गरीब तबकों से आये सेनाध्यक्षों के पास थी, किन्तु सामाजिक क्षेत्र में पुराने सामन्तवादियों और नये सामन्तवादियों में समझौता हो गया था। नये सामन्तवादी कुनवियों, धनगरों, मराठों और अन्य गरीब जातियों से आये हुए सेनाध्यक्ष थे। इस समझौते का फल यह हुआ कि पेशवा ब्राह्मण हुए, किन्तु युद्ध-सत्ता नवीन सामन्तवादियों के हाथ में रही।

उधर सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में निम्नवर्गीय भक्तिर्माग के जनवादी संदेश के दांत उखाड़ लिये गये। उन सन्तों को सर्ववर्गीय मान्यता प्राप्त हुई, किन्तु उनके सन्देश के मूल स्वरूप पर कुठारघात किया गया, और जातिवादी पुराणधर्म पुन: नि:शंक भाव से प्रतिष्ठित हुआ।

(४) उत्तर भारत में निर्गुणवादी भक्ति-आन्दोलन में शोषित जनता का सबसे बड़ा हाथ था। कबीर, रैदास, आदि सन्तों की बानियों का सन्देश, तत्कालीन मानों के अनुसार, बहुत अधिक क्रांन्तिकारी था। यह आकस्मिकता न थी कि चण्डीदास कह उठता है :

शुनह मानुष भाई
शबार ऊपरे मानुष शतो
ताहार उपरे नाई।

इस मनुष्य-सत्य की घोषणा के क्रांतिकारी अभिप्राय कबीर में प्रकट हुए। कुरीतियों, धार्मिक अन्धविश्वासों और जातिवाद के विरुद्ध कबीर ने आवाज उठायी। वह फैली। निम्न जातियों में आत्मविश्वास पैदा हुआ। उनमें आत्म-गौरव का भाव हुआ। समाज की शासक-सत्ता को यह कब अच्छा लगता? निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का प्रारम्भिक प्रसार और विकास उच्चवंशियों में हुआ। निर्गुण मत के विरुद्ध सगुणमत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशी संस्कारशील अभिरूचिवालों का संघर्ष था। सगुण मत विजयी हुआ। उसका प्रारम्भिक विकास कृष्णभक्ति के रूप में हुआ। यह कृष्णभक्ति कई अर्थों में निम्नवर्गीय भक्ति-आन्दोलन से प्रभावित थी। उच्चवर्गीयों का एक भावुक तबका भक्ति-आन्दोलन से हमेशा प्रभावित होता रहा, चाहे वह दक्षिण भारत में हो या उत्तर भारत में। इस कृष्णभक्ति में जातिवाद के विरुद्ध कई बातें थीं। वह एक प्रकार से भावावेशी व्यक्तिवाद था। इसी कारण, महाराष्ट्र में, निर्गुण मत के बजाय निम्न-वर्ग में, सगुण मत ही अधिक फैला। सन्त तुकाराम का बिठोबा एक सार्वजनिक कृष्ण था। कृष्णभक्तिवाली मीरा 'लोकलाज` छोड़ चुकी थी। सूर कृष्ण-प्रेम में विभोर थे। निम्नवर्गीयों में कृष्णभक्ति के प्रचार के लिए पर्याप्त अवकाश था, जैसा महाराष्ट्र की सन्त परम्परा का इतिहास बतलाता है। उत्तर भारत में कृष्णभक्ति-शाखा का निर्गुण मत के विरुद्ध जैसा संघर्ष हुआ वैसा महाराष्ट्र में नहीं रहा। महाराष्ट्र में कृष्ण की श्रृंगार-भक्ति नहीं थी, न भ्रमरगीतों का जोर था। कृष्ण एक तारणकर्ता देवता था, जो अपने भक्तों का उद्धार करता था, चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। महाराष्ट्रीय सगुण कृष्णभक्ति में श्रृंगारभावना, और निर्गुण भक्ति, इन दो के बीच कोई संघर्ष नहीं था। उधर उत्तर भारत में, नन्ददास वगैरह कृष्णभक्तिवादी सन्तों की निर्गुण मत-विरोधी भावना स्पष्ट ही है। और ये सब लोग उच्चकुलोद्भव थे। यद्यपि उत्तर भारतीय कृष्णभक्ति वाले कवि उच्चवंशीय थे, और निर्गुण मत से उनका सीधा संघर्ष भी था, किन्तु हिन्दू समाज के मूलाधार यानी वर्णाश्रम-धर्म के विरोधियों ने जातिवाद-विरोधी विचारों पर सीधी चोट नहीं की थी। किन्तु उत्तर भारतीय भक्ति आन्दोलन पर उनका प्रभाव निर्णायक रहा।

एक बार भक्ति-आन्दोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी। ये घोषणा तुलसीदासजी ने की थी। निर्गुण मत में निम्नजातीय धार्मिक जनवाद का पूरा जोर था, उसका क्रान्तिकारी सन्देश था। कृष्णभक्ति में वह बिल्कुल कम हो गया किन्तु फिर भी निम्नजातीय प्रभाव अभी भी पर्याप्त था। तुलसीदास ने भी निम्नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना सामाजिक दायरा बतला दिया। निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रान्तिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया। निर्गुण-मतवादियों का ईश्वर एक था, किन्तु अब तुलसीदासजी ने मनोजगत् में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद सगुण ईश्वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था-जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी-उत्पन्न की। राम निषाद और गुह का आलिंगन कर सकते थे, किन्तु निषाद और गुह ब्राह्मण का अपमान कैसे कर सकते थे। दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी भक्तिमार्ग बना, तो उसमें पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था। कृष्णभक्ति के द्वारा पौराणिक कथाएं घुसीं, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की।

साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद तुलसी के सन्देश से अधिक क्रान्तिकारी था। तुलसी को भक्ति का यह मूल तत्व तो स्वीकार करना ही पड़ा कि राम के सामने सब बराबर हैं, किन्तु चूंकि राम ही ने सारा समाज उत्पन्न किया है, इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को तो मानना ही होगा। पं. रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।

क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति-शाखा के अन्तर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्पूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया? क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति-शाखा के अन्तर्गत रसखान और रहीम-जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आये, किन्तु रामभक्ति-शाखा के अन्तर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका? जब कि यह एक स्वत: सिद्ध बात है कि निर्गुण-शाखा के अन्तर्गत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त था।
निष्कर्ष यह कि जो भक्ति-आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएं बोलती थीं, उसका 'मनुष्य-सत्य` बोलता था, उसी भक्ति-आन्दोलन को उच्चवर्गीयों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके, और अनन्तर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस
पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

और इस प्रकार, उच्चवंशी उच्चजातीय वर्गों का-समाज के संचालक शासक वर्गों का-धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो जाने पर, साहित्यिक क्षेत्र में उन वर्गों के प्रधान भाव-श्रृंगार-विलास-का प्रभावशाली विकास हुआ, और भक्ति-काव्य की प्रधानता जाती रही। क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति-आन्दोलन के प्रधान (हिन्दी क्षेत्र में) अन्तिम कवि थे? सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्र में यह परिवर्तन भक्ति-आन्देालन की शिथिलता को द्योतित करता है। किन्तु यह आन्दोलन इस क्षेत्र में शिथिल क्यों हुआ?

ईसाई मत का भी यही हाल हुआ। ईसा का मत जनसाधारण में फैला तो यहूदी धनिक वर्गों ने उसका विरोध किया, रोमन शासकों ने उसका विरोध किया। किन्तु जब वह जनता का अपना धर्म बनने लगा, तो धनिक यहूदी और रोमन लोग भी उसको स्वीकार करने लगे। रोम शासक ईसाई हुए और सेंट पॉल ने उसी भावुक प्रेममूलक धर्म को कानूनी शिकंजों में जकड़ लिया, पोप जनता से फीस लेकर पापों और अपराधों के लिए क्षमापत्र वितरित करने लगा।

यदि हम धर्मों के इतिहास को देखें, तो यह जरूर पायेंगे कि तत्कालीन जनता की दुरवस्था के विरुद्ध उसने घोषणा की, जनता को एकता और समानता के सूत्र में बांधने की कोशिश की। किन्तु ज्यों-ज्यों उस धर्म में पुराने शासकों की प्रवृत्ति वाले लोग घुसते गये और उनका प्रभाव जमता गया, उतना-उतना गरीब जनता का पक्ष न केवल कमजोर होता गया, वरन् उसको अन्त में उच्चवर्गों की दासता-धार्मिक दासता-भी फिर से ग्रहण करनी पड़ी।
क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आन्दोलन सफल नहीं हो सका? उसका मूल कारण यह है कि भारत में पुरानी समाज-रचना को समाप्त करनेवाली पूंजीवादी क्रांतिकारी शक्तियां उन दिनों विकसित नहीं हुई थीं। भारतीय स्वदेशी पूंजीवाद की प्रधान भौतिक-वास्तविक भूमिका विदेशी पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने बनायी। स्वदेशी पूंजीवाद के विकास के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद का अभ्युदय और सुधारवाद का जन्म हुआ, और उसने सामन्ती समाज-रचना के मूल आर्थिक आधार, यानी पेशेवर जातियों द्वारा सामाजिक उत्पादन की प्रणाली समाप्त कर दी। गांवों की पंचायती व्यवस्था टूट गयी। ग्रामों की आर्थिक आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी।

भक्ति-काल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है। यद्यपि पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कहना ठीक है कि भक्ति की धारा बहुत पहले से उद्गत होती रही, और उसकी पूर्वभूमिका बहुत पूर्व से तैयार होती रही। किन्तु उनके द्वारा निकाला गया यह तर्क ठीक नहीं मालूम होता है कि भक्ति-आन्दोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किन्तु पण्डित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोध और हिन्दू-राज सत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते। असल बात यह है कि मुसलमान सन्त-मत भी उसी तरह कट्टरपन्थियों के विरुद्ध था, जितना कि भक्ति-मार्ग। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित भी थे। किन्तु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भक्ति-भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दु:खों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दु:स्थिति छिपी हुई थी। यहां यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि यह बात साधारण जनता और उसमें से निकले हुए सन्तों की है, चाहे वे ब्राह्मण वर्ग से निकले हों या ब्राह्मणेतर वर्ग से। साथ ही, यह भी स्मरण रखना होगा कि श्रृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ जहां ऐसी श्रृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था, फुर्सत का समय। भक्ति-आन्दोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में, जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।
किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियायों का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्त:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किये हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?

तुलसीदासजी ने सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न अत्यन्त आवश्यक भी हैं। रामचरितमानसकार एक सच्चे सन्त थे, इसमें किसी को भी कोई सन्देह नहीं हो सकता। रामचरितमानस साधारण जनता में भी उतना ही प्रिय रहा जितना कि उच्चवर्गीय लोगों में। कट्टरपन्थियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदासजी का उपयोग किया, जिस प्रकार आज जनसंघ और हिन्दू महासभा ने शिवाजी और रामदास का उपयोग किया। सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।

किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि साधारण जनता ने राम को अपना त्राणकर्ता भी पाया, गुह और निषाद को अपनी छाती से लगानेवाला भी पाया। एक तरह से जनसाधारण की भक्ति-भावना के भीतर समाये हुए समान प्रेम का आग्रह भी पूरा हुआ, किन्तु वह सामाजिक ऊंच-नीच को स्वीकार करके ही। राम के चरित्र द्वारा और तुलसीदासजी के आदेशों द्वारा सदाचार का रास्ता भी मिला। किन्तु वह मार्ग कबीर के और अन्य निर्गुणवादियों के सदाचार का जनवादी रास्ता नहीं था। सच्चाई और ईमानदारी, प्रेम और सहानुभूति से ज्यादा बड़ा तकाजा था सामाजिक रीतियों का पालन। (देखिए रामायण में अनुसूया द्वारा सीता को उपदेश)। उन रीतियों और आदेशों का पालन करते हुए, और उसकी सीमा में रहकर ही, मनुष्य के उद्धार का रास्ता था। यद्यपि यह कहना कठिन है कि किस हद तक तुलसीदासजी इन आदेशों का पालन करवाना चाहते थे और किस हद तक नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि उनका सुझाव किस ओर था। तुलसीदासजी द्वारा इस वर्णाश्रम धर्म की पुन:र्स्थापना के अनन्तर हिन्दी साहित्य में फिर से कोई महान भक्त-कवि नहीं हुआ तो इसमें आश्चर्य नहीं।

आश्चर्य की बात यह है कि आजकल प्रगतिवादी क्षेत्रों में तुलसीदासजी के सम्बंध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के तुलसीदासजी अंग थे, उसको जान-बूझकर भुलाया गया है। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवादग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक दूसरे से ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्लजी (जिनके प्रति हमारे मन में अत्यन्त आदर है) सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हों। तुलसीदासजी को पुरातनवादी कहा जायेगा कबीर की तुलना में, जिनके विरुद्ध शुक्लजी ने चोटें की हैं।

दूसरे, जो लोग शोषित निम्नवर्गीय जातियों के साहित्यिक और सांस्कृतिक संदेश में दिलचस्पी रखते हैं, और उस सन्देश के प्रगतिशील तत्वों के प्रति आदर रखते हैं, वे लोग तो यह जरूर देखेंगे कि जनता की सामाजिक मुक्ति को किस हद तक किसने सहारा दिया और तुलसीदासजी का उसमें कितना योग रहा। चाहे श्री रामविलास शर्मा-जैसे 'मार्क्सवादी` आलोचक हमें 'वल्गर मार्क्सवादी` या बूर्ज्वा कहें, यह बात निस्सन्देह है कि समाजशाी़य दृष्टि से मध्ययुगीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण के बिना, तुलसीदासजी के साहित्य के अन्त:स्वरूप क साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। जहां तक रामचरितमानस की काव्यगत सफलताओं का प्रश्न है, हम उनके सम्मुख केवल इसलिए नतमस्तक नहीं हैं कि उसमें श्रेष्ठ कला के दर्शन होते हैं, बल्कि इसलिए कि उसमें उक्त मानव-चरित्र के, भव्य और मनोहर व्यक्तित्व-सत्ता के, भी दर्शन होते हैं।
तुलसीदासजी की रामायण पढ़ते हुए, हम एक अत्यन्त महान् व्यक्तित्व की छाया में रहकर अपने मन और हृदय का आप-ही-आप विस्तार करने लगते हैं और जब हम कबीर आदि महान् जनोन्मुख कवियों का सन्देश देखते हैं, तो हम उनके रहस्यवाद से भी मुंह मोड़ना चाहते हें। हम उस रहस्यवाद के समाजशाी़य अध्ययन में दिलचस्पी रखते हैं, और यह कहना चाहते हैं कि निर्गुण मत की सीमाएं तत्कालीन विचारधारा की सीमाएं थीं, जनता का पक्ष लेकर जहां तक जाया जा सकता था, वहां तक जाना हुआ। निम्नजातीय वर्गों के इस सांस्कृतिक योग की अपनी सीमाएं थीं। ये सीमाएं उन वर्गों की राजनैतिक चेतना की सीमाएं थीं। आधुनिक अर्थों में, वे वर्ग कभी जागरूक सामाजिक-राजनैतिक-संघर्ष-पथ पर अग्रसर नहीं हुए। इसका कारण क्या है, यह विषय यहां अप्रस्तुत है। केवल इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि संघर्षहीनता के अभाव का मूल कारण भारत की सामन्तयुगीन सामाजिक-आर्थिक रचना में है। दूसरे, जहां ये संघर्ष करते-से दिखायी दिये, वहां उन्होंने एक नये सामान्ती शासक वर्ग को ही दृढ़ किया, जैसा कि महाराष्ट्र में हुआ है।

प्रस्तुत विचारों के प्रधान निष्कर्ष ये हैं :

(१) निम्नवर्गीय भक्ति-भावना एक सामाजिक परिस्थिति में उत्पन्न हुई और दूसरी सामाजिक स्थिति में परिणत हुई। महाराष्ट्र में उसने एक राष्ट्रीय जाति खड़ी कर दी, सिख एक नवीन जाति बन गये। इन जातियों ने तत्कालीन सर्वोत्तम शासक वर्गों से मोर्चा लिया। भक्तिकालीन सन्तों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, न सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की। सारांश यह कि भक्ति भावना के राजनैतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनैतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधारा के समर्थकों के विरुद्ध थे।

(२) इस भक्ति-आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में निम्नवर्गीय तत्व सर्वाधिक सक्षम और प्रभावशाली थे। दक्षिण भारत के कट्टरपंथी तत्व, जो कि तत्कालीन हिन्दू सामन्ती वर्गों के समर्थक थे, इस निम्नवर्गीय सांस्कृतिक जनचेतना के एकदम विरुद्ध थे। वे उन पर तरह-तरह के उत्याचार भी करते रहे। मुस्लिम तत्वों से मार खाकर भी, हिन्दू सामन्ती वर्ग उनसे समझौता करने की विवश्ता स्वीकार कर, उनसे एक प्रकार से मिले हुए थे। उत्तर भारत में हिन्दुओं के कई वर्गों का पेशा ही मुस्लिम वर्गों की सेवा करना था। अकबर ही पहला शासक था, जिसने तत्कालीन तथ्यों के आधार पर खुलकर हिन्दू सामन्तों का स्वागत किया।

उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में हिन्दू सामन्ती तत्व मुसलमान सामन्ती तत्वों से छिटककर नहीं रह सके। लूट-पाट, नोच-खसोट के उस युग में जनता की आर्थिक-सामााजिक दु:स्थिति गंभीर थी। निम्नवर्गीय जातियों के सन्तों की निर्गुण-वाणी का, तत्कालीन मानों के अनुसार, क्रांन्तिकारी सुधारवादी स्वर, अपनी सामाजिक स्थिति के विरुद्ध क्षोभ और अपने लिए अधिक मानवोचित परिस्थिति की आवश्यकता बतलाता था। भक्तिकाल की निम्नवर्गीय चेतना के सांस्कृतिक स्तर अपने-अपने सन्त पैदा करने लगे। हिन्दू-मुस्लिम सामन्ती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंथी दृढ़ता से प्रेरित हिन्दू-मुस्लिम जनता भक्ति-मार्ग पर चल पड़ी थी, चाहे वह किसी भी नाम से क्यों न हो। निम्नवर्गीय भक्ति-मार्ग निर्गुण-भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस निर्गुण-भक्ति में तत्कालीन सामन्तवाद-विरोधी तत्व सर्वाधिक थे। किन्तु तत्कालीन समाज-रचना के कट्टर पक्षपाती तत्वों में से बहुतेरे भक्ति-आंदोलन के प्रभाव में आ गये थे। इनमें से बहुत-से भद्र सामन्ती परिवारों में से थे निर्गुण भक्ति की उदारवादी और सुधारवादी सांस्कृतिक विचारधारा का उन पर भारी प्रभाव हुआ। उन पर भी प्रभाव तो हुआ, किन्तु आगे चलकर उन्होंने भी भक्ति-आन्दोलन को प्रभावित किया। अपने कट्टरपन्थी पुराणमतवादी संस्कारों से प्रेरित होकर, उत्तर भारत की कृष्णभक्ति, भावावेशवादी आत्मवाद को लिये हुए, निर्गुण मत के विरुद्ध संघर्ष करने लगी। इन सगुण मत में उच्चवर्गीय तत्वों का पर्याप्त से अधिक समावेश था। किन्तु फिर भी इस सगुण श्रृंगारप्रधान भक्ति की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जाति-विरोधी सुधारवादी वाणी के विरूद्ध प्रत्यक्ष और प्रकट रूप से वर्णाश्रम धर्म के सार्वभौम औचित्य की घोषणा करे। कृष्णभक्तिवादी सूर आदि सन्त-कवि इन्हीं वर्गों से आये थे। इन कवियों ने भ्रमरगीतों द्वारा निर्गुण मत से संघर्ष किया और सगुणवाद की प्रस्थापना की। वर्णाश्रम धर्म की पुन:र्स्थापना के लिए सिर्फ एक ही कदम आगे बढ़ना जरूरी था। तुलसीदासजी के अदम्य व्यक्तित्व ने इस कार्य को पूरा कर दिया। इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन, जिस पर प्रारंभ में निम्नजातियों का सर्वाधिक जोर था, उस पर अब ब्राह्मणवाद पूरी तरह छा गया और सुधारवाद के विरुद्ध पुराण मतवाद की विजय हुई। इसमें दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश के हिन्दू-मुस्लिम सामन्ती तत्व एक थे। यद्यपि हिन्दू मुसलमानों के अधीन थे, किन्तु दु:ख और खेद से ही क्यों न सही, यह विवशता उन्होंने स्वीकार कर ली थी। इन हिन्दू सामन्त तत्वों की सांस्कृतिक क्षेत्र में अब पूरी विजय हो गयी थी।

(३) महाराष्ट्र में इस प्रक्रिया ने कुछ और रूप लिया। जन-सन्तों ने अप्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्र को जाग्रत और सचेत किया, रामदास और शिवाजी ने प्रत्यक्ष रूप से नवीन राष्ट्रीय जाति को जन्म दिया। किन्तु तब तक ब्राह्मणवादियों और जनता के वर्ग से आये हुए प्रभावशाली सेनाध्यक्षों और सन्तों में एक-दूसरे के लिए काफी उदारता बतलायी जाने लगी। शिवाजी के उपरान्त, जनता के गरीब वर्गों से आये हुए सेनाध्यक्षों और नेताओं ने नये सामन्ती घराने स्थापित किय। नतीजा यह हुआ कि पेशवाओं के काल में ब्राह्मणवाद फिर जोरदार हो गया। कहने का सारांश यह कि महाराष्ट्र में वही हाल हुआ जो उत्तरप्रदेश में। अन्तर यह था कि निम्नजातीय सांस्कृतिक चेतना जिसे पल-पल पर कट्टरपंथ से मुकाबला करना पड़ा था, वह उत्तर भारत से अधिक दीर्घकाल तक रही। पेशवाओं के काल में दोनों की स्थिति बराबर-बराबर रही। किन्तु आगे चलकर, अंग्रेजी राजनीति के जमाने में, पुराने संघर्षों की यादें दुहरायी गयीं, और 'ब्राह्मण-ब्राह्मणेतरवाद` का पुनर्जन्म और विकास हुआ। और इस समय भी लगभग वही स्थिति है। फर्क इतना ही है कि निम्नजातियों के पिछड़े हुए लोग शिड्यूलकास्ट फेडरेशन में है, और अग्रगामी लोग कांग्रेस, पेजेंन्ट्स ऐण्ड वर्कर्स पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी तथा अन्य वामपक्षी दलों में शामिल हो गये हैं। आखिर जब इन्हीं जातियों में से पुराने जमाने में सन्त आ सकते थे, आगे चलकर सेनाध्यक्ष निकल सकते थे, तो अब राजनैतिक विचारक और नेता क्यों नहीं निकल सकते?

(४) सामन्तवादी काल में इन जातियों को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती थी, जब तक कि पूंजीवादी समाज-रचना सामन्ती समाज-रचना को समाप्त न कर देती। किन्तु सच्ची आर्थिक-सामाजिक समानता तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि समाज आर्थिक-सामाजिक आधार पर वर्गहीन न हो जाये।

(५) किसी भी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है। कबीर, तुलसीदास आदि संतों के अध्ययन के लिए यह सर्वाधिक आवश्यक है। मैं इस ओर प्रगतिवादी क्षेत्र का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।


व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है

यादों में बसे लोग

  • राजूरंजन प्रसाद

पटना में साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोकधन्वा आदि का नाम मैंने उन्हीं दिनों सुना आलोकधन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।




बीएन कॉलेज में इतिहास ऑनर्स का छात्र था जब पहली बार आकाशवाणी, पटना में सुलभ जी से मिला। रेडियो पर लेख पढ़ना चाहता था-'भक्ति आंदोलन का सामंत विरोधी स्वर`। सुलभ जी ने उसे उलट-पलट कर देखा और कहा-राजू जी, व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है। उनके इस एक वाक्य ने मुझे काफी प्रभावित किया। फिर और बातें होने लगीं। मेरे प्रिय कवि के बारे में भी पूछा। मैं भूला नहीं हूं कि मैंने आलोकधन्वा का नाम लिया था। आगे उन्होंने एक किताब दी-'धूप की एक विराट नाव` हरेकृष्ण झा की काव्य पुस्तिका, जो मध्य प्रदेश की 'साम्य` पत्रिका की तरफ से मुद्रित हुई थी। मैंने इसे स्वीकार किया और दो-तीन दिनों में समीक्षा जमा कर दी। कविताएं चूंकि राजनीतिक थीं, इसलिए अमूमन मैंने उनका राजनीतिक विश्लेषण ही किया। यह और बात है कि हरेकृष्ण झा ने उसकी तारीफ की तथा देर तक बातचीत की। पता चला, झा जी के नक्सलबाड़ी आंदोलन के साथ कभी गहरे रिश्ते थे।

वे सब प्रतिबद्धता की फसल काट रहे हैं

शायद बीए का ही छात्र था, जब आरक्षण को लेकर देशव्यापी हंगामा हुआ था। पूरे देश के छात्र समर्थन और विरोध में बंटे हुए थे। इस मुद्दे को लेकर मैं भी अपने मित्रों के बीच बहस छेड़ दिया करता था। एक दिन जोर-जोर से कॉलेज कैंपस में बोल ही रहा था कि दो अपरिचित सज्जनों ने मुझसे थोड़ा एकांत में चलने का आग्रह किया। भीड़ से अलग हुआ और एक औपचारिक परिचय के बाद फिर नये सिरे से बातचीत में भिड़ गया। सज्जनों में इरफान और विष्णु राजगढ़िया थे। विष्णु तो देखने में साधारण ही लगते, लेकिन इरफान काफी बौद्धिक छटा बिखेरते थे। उनकी बातचीत का अंदाज काफी गंभीर और बौद्धिकतापूर्ण था, हालांकि उन्होंने सिगरेट भी सुलगायी थी। मुझे भी शरीक किया।

बातचीत के क्रम में पता चला कि वे लोग समकालीन जनमत पत्रिका की तरफ से थे। स्टोरी के लिए मैटर का जुगाड़ बिठाने और कॉलेज में आंदोलन की तासीर जानने आये थे। दोनों ने मुझे रामजी राय और प्रदीप झा से मिलने की सलाह दी। मिला भी। इस परिचय के बाद हमलोगों ने नियमित मिलना-जुलना जारी रखा। विष्णु तो प्राय: कम बोलते थे, लेकिन इरफान मुझे अक्सर इस बात के लिए कांेचते कि 'मैं पार्टी में नहीं हूं, इसलिए प्रतिबद्ध नहीं हूं।` उनका अत्यंत प्रिय सूत्रवाक्य था कि 'जो पार्टी का कैडर नहीं है, उसकी क्रांतिकारिता पर भरोसा नहीं किया जा सकता`। वैसे मैं सीपीआइ माले का सिंपेथाइजर अवश्य था, लेकिन पार्टी का बंधन मानने को मन तैयार न था। प्रेमचंद का यह वाक्य कहीं पढ़ रखा था कि 'मेरी पार्टी अभी बनी नहीं है`। उसी तर्ज पर मैं भविष्य की पार्टी का इंतजार कर रहा था।

कहना होगा कि इस मेलजोल के साथ ही मन में दुराव का भाव भी पैदा हो रहा था। लोगों के रहने के तरीके को लेकर कभी-कभी मैं काफी हैरान और चिंतित हो उठता। इरफान सदैव मोटरसाइकिल से ही चलते और हर आधे घंटे पर विल्स सिगरेट फूंकते। मुझे लगता यह पार्टी के पैसे का दुरुपयोग है। एक दिन थोड़ी खीझ होने पर मैंने कह भी दिया था-'इरफान, अगर प्रतिबद्धता का यही मतलब है तो इस कीमत पर मैं प्रतिबद्ध नहीं हो सकता।` माले के लड़कों में सिगरेट की बड़ी भारी लत थी। अपने 'गॉडफादर` विनोद मिश्र की नकल हो शायद! रंजीत अभिज्ञान भी तब पटने में बहुत सिगरेट पीता था और हमेशा चंदे के नाम पर लोगों से पैसे लेता और भागा फिरता। नये लड़कों में नवीन और अभ्युदय बहुत सिगरेट पीते हैं। संगठन का पीते हैं, यह नहीं कह सकता।
समकालीन जनमत का विष्णु, इरफान और चंद्रभूषणवाला ग्रुप 'श्रेष्ठताबोध` की भावना से भरा हुआ था। एक शाम मैं टहलते हुए महेंद्र सिंह के शास्त्रीनगर वाले फ्लैट पर पहुंचा, जहां वे लोग स्थायी तौर पर रहा करते थे तो पाया कि सभी किसी गंभीर विमर्श में फंसे हैं। मैंने भी कुछ कहने की हिम्मत (जुर्रत!) की तो तीनों मुझे कुछ इस कदर घूरने लगे, मानों आंखों-ही-आंखों में मुझे बता रहे होंऱ्यह आपके बूते की चीज नहीं है। वे लोग 'दि सेकेंड सेक्स` पर बातें कर रहे थे। माले का यह हिरावल दस्ता 'सेक्स` को भरपूर जीता था। पार्टी के अंदर 'सेक्स स्कैंडल` और यौन शोषण की कम किंवदंतियां नहीं हैं।

इसी क्रम में फरवरी, १९९० में मेरी शादी होनी तय हुई। जनमत के इस ग्रुप से मैंने शादी में शरीक होने के लिए आग्रह किया। कार्ड दिया ही था कि इरफान ने कहा, 'चलो एक और जीवन नष्ट हुआ।` खैर, वे लोग वहां पहुंचे। कमलेश शर्मा भी उनलोगों के साथ थे। लड़कीवाले की तरफ से निवेदिता थीं। मेरे बड़े भाई के साले अमरेंद्र कुमार भी थे। अमरेंद्र का मैंने जनमत के लोगों से परिचय कराया। इरफान ने अमरेंद्र से दार्शनिक अंदाज में पूछा-आपको सबसे ज्यादा कौन-सी चीज आतंकित करती है? अमरेंद्र ने बिल्कुल अपने स्वभाव के अनुकूल जवाब दिया-'पेड़ से पत्तों का गिरना।` अमरेंद्र कुमार को आज भी मैं इसी बिंब के साथ याद करता हूं।। यह जवाब इरफान के लायक भी था। सुना है, आजकल वे सब प्रतिबद्धता की फसल काट रहे हैं।

क्रांति ड्रामा करने गयी है

१९८४ में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं पटना के सैदपुर छात्रावास में अपने बड़े भाई के साथ रहने लगा। कथाकार हंसकुमार पांडेय भी साथ रहा करते थे। पांडेय जी कहानियों में ही नहीं, सामान्य बातचीत में भी कथा बुनते नजर आते। वे दोनों जब आपस की बातचीत शुरू कर देते तो पटने की साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोकधन्वा, तरुण कुमार एवं अपूर्वानंद का नाम मैंने उन्हीं दिनों जान-सुन रखा था। आलोकधन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।

पांडेय जी ने एक दिन किसी स्टडी सर्किल की एक कथा सुनायी। आलोकधन्वा अपनी या किसी और की कविता का पाठ कर रहे थे। कविता शायद कुछ इस तरह शुरू होती थी-'कुल्हाड़ी फेक के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी फेंक के मारो।` तभी आलोचकीय बुद्धि से लैस एक वकील उठ खड़ा हुआ और कहने लगा-कॅमरेड, आपने भारी भूल कर दी। 'कुल्हाड़ी फेक के मारो नहीं`, 'कुल्हाड़ी थाम के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी थाम के मारो।` आलोचना का सार यह था कि कुल्हाड़ी फेंक कर मारने पर हथियार वर्गशत्रु के हाथ लग सकता है जो क्रांति के साथ गद्दारी है। मेरी छोटी बुद्धि तब इसे समझ न पायी थी, लेकिन आलोकधन्वा मेरे लिए एक अद्भुत जिज्ञासा की चीज बन चुके थे, उनकी कविताओं से पहली बार मेरा सीधा परिचय 'हंस` के माध्यम से हुआ। उनकी कविताएं मुझे दूर तक आकर्षित करतीं। मिलने की चाह तेज होती गयी और अंतत: भिखना पहाड़ी स्थित उनके निवास पर पहुंच ही गया। पहली बातचीत कैसे शुरू हुई थी, मुझे आज कुछ भी याद नहीं है- सिर्फ इतना कि लगभग घंटा भर वे बोलते रहे थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने घर की दीवार पर सटे पोस्टर 'हैंड्स ऑफ क्यूबा` की भी चर्चा की। आलोक की जब भी याद आती है 'हैंड्स ऑफ क्यूबा` भी मूर्त हो उठता है।

धीरे-धीरे आलोकधन्वा मेरी जरूरत बनने लगे। महीने-दो-महीने पर उनसे अवश्य मिल लेता। उनसे जब भी मिला, बोलता हुआ ही पाया। हालांकि बीच-बीच में कह डालते कि डॉक्टर ने थोड़ा कम बोलने को कहा है, लेकिन इस हिदायत पर अमल मुझ जैसे श्रोता को ही करना पड़ता था। वे एक अतिसंवेदनशील वक्ता थे। श्रोता के मनोभावों का खास ख्याल रखते थे। दूसरों की मौजूदगी में प्राय: ही कहते, 'राजू समाजशास्त्र के विद्वान हैं।` मेरे लिए यह शायद सांत्वना पुरस्कार होता। मेरा भी कद कुछ-कुछ बड़ा हो जाता। अचानक विद्यार्थी से विद्वान हो जाता। इससे ज्यादा किसी को भला क्या चाहिए? बातचीत का विषय काफी विस्तृत और आत्मीय होता। देश-दुनिया की बात करते-करते वे अपने बारे में, स्वास्थ के बारे में और यहां तक कि अपने कमरे के बारे में भी घंटों बोल जाते। यह भी कि उस कमरे को अब छोड़ नहीं सकता, चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो। उस फ्लैट का ऐतिहासिक महत्व जो हो चला था। फणीश्वरनाथ रेणु और भगवत रावत सरीखे लोगों की यादें जुड़ी थीं उससे। निजी जिंदगी से जुड़ी कहानियों का अक्सर एक लोक रचते और बताते कि मिर्जापुर में कभी उनकी भी एक छोटी-सी जमींदारी हुआ करती थी। इन कहानियों में उनके पिताजी सदैव दोनाली बंदूक रखते, लेकिन कभी किसी की हत्या नहीं की। मिर्जापुर की जमींदारी की चर्चा उनके वकील भाई भी करते।

जब मैं स्वरूप विद्या निकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम कर रहा था तो एक दिन मिर्जापुर से एक सज्जन पधारे। पूछने पर पता चला कि वे पेशे से वकील हैं और उनकी एक जमींदारी भी है। अनायास ही मैंने पूछ डाला कि कहीं आप मेरे शहर के चर्चित कवि आलोकधन्वा के भाई तो नहीं। लगभग चौंकते हुए उन्होंने पूछा-क्यों? मैंने कहा, मिर्जापुर में एक छोटी-सी जमींदारी उनकी भी हुआ करती थी। जब यह बातचीत चल रही थी, मेरे सहकर्मी श्री ओमप्रकाश पांडेय भी वहां मौजूद थे। वह मुझे आश्चर्य और विस्मय से घूरने लगे।

आलोकधन्वा एक स्वास्थ-सजग जनवादी कवि थे। घर से बाहर भी वे हमेशा अपना ही पानी पीते। मैंने पानी की इनकी बोतल तब देखी थी, जब पटना की स्वास्थ-संस्कृति के लिए यह लगभग हास्य-विनोद की चीज थी। अब तो अधिकतर लोग उनके अनुयायी हो चले हैं। जनवाद बढ़ा-फैला सा लगता है। पीने के पानी के बारे में वे मुझसे भी पूछते। जब मैं कहता कि चापाकल का पानी पीता हूं तो अचरज भरी निगाहों से देखते और समान प्रश्न को दुहराते, 'आप हैंडपंप चला लेते हैं?` मैं 'हां` में जवाब देकर मन ही मन मजदूरिनों पर लिखी उनकी कविताओं पर पुनर्विचार की मुद्रा में आ जाता। बातचीत में कभी-कभी वे अधिक समय लगा देते तो बीच में बाथरूम की दरकार हो आती। पूछने पर रेडीमेड जवाब देते-'इस्तेमाल के लायक नहीं है`। यह सच भी हो सकता था लेकिन मुझे लगता कि वे सफाईपसंद आदमी हैं, अतएव परहेज रखते हैं। वैसे वे सफाई का काफी ख्याल रखते थे। जब भी किचेन जाते एप्रन जरूर लटका लेते। वे अपने घर में १९वीं शताब्दी के रूसी उपन्यास के नायकों की तरह रहते।

१९९१ में मैं एमए (इतिहास) में दाखिला ले चुका था। विजय कुमार ठाकुर के संरक्षण में अशोक जी ने 'इतिहास विचार मंच` की स्थापना की, जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। इस संस्था का प्रमुख काम अकादमिक महत्व के विषयों में लेक्चर आयोजित करना था। इसी सिलसिले में हमलोग एक दिन आलोकधन्वा से जा मिले और 'प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था` विषय पर अपनी बात रखने के लिए उनसे आग्रह किया। लगभग आधे घंटे तक वे तफसील से बताते रहे कि किन-किन महत्वपूर्ण गोष्ठियों की उन्होंने अध्यक्षता की है। इस बात को भी रेखांकित किया कि कैसे आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा ने उनसे एक बार किसी गोष्ठी की अध्यक्षता करवायी थी, जब वे महज इंटर के छात्र थे। लगभग आधे घंटे की अपनी विरुद्गाथा से निवृत्त हो उन्होंने बदली हुई भंगिमा में कहना शुरू किया 'राजू भाई, अगर कोई जाति-पांति की बात करता हो तो वैसे लोगों पर थूक दीजिए।` मैंने हल्का प्रतिवाद करने की कोशिश की 'आलोक जी, मैं जाति की राजनीति करने की कोई मंशा नहीं रखता। मेरा उद्देश्य तो समस्या का समाजशास्त्रीय अध्ययन भर है।` वे कहां माननेवाले थे। जब वे अपनी रौ में होते तो सामनेवाले की शायद ही सुनते थे। फिर वे अपने मूल कथन को ही दुहराने लगे। मैं तो लिहाजवश चुप ही रहा किंतु अशोक जी ने अपना मुखर मौन तोड़ा। कहने लगे, 'आलोक जी, सच्चाई यह है कि जाति-पांति का नाम लेनेवाले हर आदमी पर अगर इसी तरह थूकते रहे तो आप डिहाइड्रेशन के शिकार हो जायेंगे और दैवयोग से अगर बच भी गये तो अपने ही थूक के अंबार में डूबे जीवन की भीख मांगते नजर आयेंगे। वैसे इसकी कम ही संभावना है कि ऐसा करने को आप बचे भी रहें`। इसके बाद हमदोनों मन ही मन कूढ़ते अशोक जी के लालबाग स्थित डेरे में लौट आये।

आलोकधन्वा एक लंबे समय से एकाकीपन में जीते आ रहे थे। शादी नहीं की थी। इस लायक किसी को समझा नहीं था शायद। या फिर कोई और कारण भी हो सकता है। कभी-कभी वे शारीरिक दुर्बलताओं का भी जिक्र किया करते। किंतु इन दिनों शादी को लेकर कुछ गंभीर होने लगे थे। 'छतों पर लड़कियां` कविता का ठीक यही समय है। एक दिन वे खाने-पीने की दिक्कतों की बात करने लगे। मैंने सलाह दी, 'कोई नौकर क्यों नहीं रख लेते?` वे बोल उठे-'नौकर बहुत महंगा हो गया है। खाता भी बहुत है। उतने खर्च में तो एक बीवी भी रखी जा सकती है।` वे जानते थे कि मेरी शादी हो चुकी है, इसलिए पूछ बैठे-'राजू भाई, आपकी कोई बड़ी साली है?` मैंने मजाक के लहजे में कहा, 'सर, मेरी पत्नी बहनों में सबसे बड़ी है। अफसोस!` 'कोई बात नहीं, इधर-उधर ही देखिए` वे कहने लगे। आगे उन्होंने अंतिम सत्य की तरह जोड़ते हुए कहा, 'आप तो मेरी जाति जानते हैं न राजू भाई? आप भूमिहार हैं न! मैं भी वही हूं!!`

एक दिन अखबार से मालूम हुआ, 'छत की लड़की` उनके आंगन में दाखिल हो चुकी है, अर्थात उन्होंने शादी कर ली है। हमलोगों के लिए यह खबर बहुत रोमांचक थी। मैं तब अशोक जी के साथ सुनील जी के मकान में रहा करता था। मैं, अशोक जी और सैदपुर छात्रावास के दिनों के पुराने परिचित सियाराम शर्मा व्यथित तीनों साथ-साथ आलोकधन्वा को शादी की बधाई देने पहुंचे। तीनों का बारी-बारी से पत्नी से परिचय कराया। अशोक जी के परिचय में उन्होंने ठीक-ठीक कौन-सा वाक्य कहा था, फिलहाल मुझे याद नहीं है। मेरा परिचय देते उन्होंने बताया-'आप राजू भाई हैं, मेरे पुराने प्रेमी और प्रशंसक`। यह भी जोड़ा कि ये मेरे एकांत के दिनों के साथी रहे हैं और समाजशास्त्र के विद्वान हैं। फिर व्यथित जी का परिचय दिया, 'आप हिंदी के विद्वान और साहित्य के गंभीर आलोचक हैं।` तब सियाराम जी की आलोचना पुस्तिका 'कविता का तीसरा संसार` पहल पत्रिका से प्रकाशित होकर आ चुकी थी। इसमें आलोकधन्वा, वीरेन डंगवाल एवं कुमार विकल की कविताओं की समीक्षा थी। हालांकि अपने साथ गोरख पाण्डेय को पाकर आलोकधन्वा सियाराम जी से थोड़ा नाराज भी थे। कवियों की जमात में 'गीतकार` को शामिल करना शायद आलोक को अच्छा न लगा था। खैर, तो अब आलोक अपनी पत्नी का परिचय देनेवाले थे। उन्होंने अभिनय की मुद्रा बनाते कहा, 'आप हैं क्रांति भट्ट। बैट (बिहार आर्ट थिएटर) की प्रख्यात अदाकारा। और फिलहाल ये कंप्यूटर से खेल रही हैं।` हमलोगों को काफी देर की मगजमारी के बाद मुश्किल से मालूम हुआ कि स्थानीय 'आज` अखबार के कंप्यूटर विभाग में नौकरी करती हैं।

शादी के बाद जब कभी आलोकधन्वा से मिलने जाता तो वे काफी व्यस्त हो जाते। खिड़कियों और कमरों के परदे दुरुस्त करते और कहते जाते-'राजू भाई अब मैं पारिवारिक हो गया हूं न!` मेरे मन को थोड़ा विनोद सूझता और मन ही मन बोलता, आलोकधन्वा ने 'पारिवारिक` होने में इतना समय लिया है, पता नहीं 'सामाजिक` बन पायेंगे भी या नहीं। साथ बैठे होने पर पत्नी को अक्सर 'बच्ची` संबोधित करते। बातचीत के क्रम में सहज ही कह जाते 'क्रांति तो मेरी बेटी के समान है, बच्ची है`। पत्नी को बेटी बनना पसंद न था और आलोकधन्वा थे कि उसे बेटी बना कर पिता का असीमित अधिकार हासिल कर लेना चाहते थे। वे क्रांति की सामान्य दिनचर्या की छोटी-से-छोटी चीज में दखल देते और अपनी बात पास करवाना चाहते। मसलन उसे कब दही खाना चाहिए और कब नहीं, इस तक का भी वे 'ख्याल` रखते। क्रांति का नाटकों के लिए घर से बाहर निकलना अब उन्हें अखरता था। एक दिन वे मुझसे कहने लगे-'राजू भाई, क्रांति रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जा रही है। आप तो जानते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में अद्भुत नाटकीयता है। उसका निर्वाह क्रांति से संभव न हो सकेगा। इसलिए मैंने तो कह रखा है कि रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जाओगी, तो मेरे सीने से गुजर कर जाना पड़ेगा। मैं हिंदी कविता का अपमान सहन करने के लिए जीवित नहीं रह सकता।` एक बारगी मेरी आंखों के सामने 'कुलीनता की हिंसा` का बिंब जीवित हो उठा। क्रांति तो गयीं, किंतु आलोक जीवित रह गये।

व्यथित जी जब कभी पटना आते और हमलोग मिल-बैठते तो आलोकधन्वा की चर्चा अवश्य होती। आलोक की कविताओं से वे बेहद प्रभावित थे। वे जब बात करने लगते तो निर्दोष बच्चों-सी ललक दिख पड़ती उनमें। मैं कभी कहता कि 'आपने आलोकधन्वा की सिर्फ कविताएं पढ़ी हैं, जीवन नहीं देखा है` तो हल्के-से प्रतिवाद के साथ बच निकलने की कोशिश करते। मुझे लगता वे अपना विश्वास नहीं तोड़ना चाहते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन यथार्थ तो परछाइंर् की तरह है। उससे बहुत दिनों तक बचा तो नहीं जा सकता। एक दिन की बात है कि अशोक जी को साथ लेकर व्यथित जी आलोकधन्वा से मिलने चले गये। वहां से लौटे तो बहुत उदास और अशांत थे। पूछने पर बताया कि 'क्रांति के साथ निभ नहीं रही है। वे गुस्से में लगातार चीख के साथ बरतनंे तोड़ी जा रही थीं।` मैं यह सब सुन कर बहुत उदास और दुखी नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की आशंका मुझे पहले ही से थी। एकांत के क्षणों में आलोकधन्वा कहने लगे थे, 'राजू भाई, मैंने दरवाजा खुला छोड़ रखा है। क्रांति जिस दरवाजे से होकर आयी है, जा भी सकती है।` मैं सोचता लोग ठीक ही कहते हैं कि कवि 'अव्यावहारिक` जीव होता है। व्यथित जी इस घटना के बाद खासे डरे लग रहे थे। वे भी अपनी शादी को लेकर गंभीर हो रहे थे, वह भी दूसरी के लिए।

इधर कुछ दिनों से आलोकधन्वा मुझसे नाराज थे। व्यथित जी की पुस्तिका 'कविता का तीसरा संसार` की समीक्षा को लेकर। यह जबलपुर से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका विकल्प में छपी थी। दरअसल मैंने जो लिखा था, उसका सार यह था कि आलोकधन्वा के यहां मुक्तिबोध के उलट कविता और जीवन दो अलग-अलग चीजें हैं। समीक्षा को पढ़ कर अथवा सुन कर आलोकधन्वा ने कुमार मुकुल से कहा था 'राजू बदतमीज और चूतिया है।` मुझे सहज ही विश्वास हो गया, क्योंकि कुमार मुकुल के बारे में मुझसे ठीक-ठीक यही वाक्य कहा था और यह भी कि 'उसने मेरे घर में कागज-कलम पकड़ना सीखा है।` आलोकधन्वा को 'साहित्य के जनतंत्र` में 'असहमति` मुश्किल से बरदाश्त होती थी। समीक्षा की आग मंद भी न पड़ी थी कि व्यथित जी पटना आ धमके। उन्हें उसी विकल्प पत्रिका का नक्सलबाड़ी अंक संपादित करने का दायित्व दिया गया था। वे चाहते थे कि आलोकधन्वा का एक लंबा (ऐतिहासिक) इंटरव्यू हो पत्रिका के लिए। इस उद्देश्य से वे अपने नायक कवि के पास पहुंचे ही थे कि वे बमक उठे। कहने लगे-'शर्मा जी, मुझे समझ में नहीं आता कि राजू जैसा पाजी लड़का आपका मित्र कैसे हो गया।` शर्मा जी के ज्ञान पर चोट थी यह, अतएव प्रतिवाद करने से अपने को रोक न पाये-'क्या मुझमें यह विवेक भी नहीं कि अपने मित्र का चुनाव मैं स्वतंत्र होकर कर सकूं?` आलोकधन्वा को अपना दांव बेअसर होता लगा तो कहने लगे-'जहां से पहल जैसी पत्रिका निकल रही हो वहां से विकल्प निकालने की क्या जरूरत है?` महाकवि का इंटरव्यू करने की शर्मा जी की ख्वाहिश पूरी न हो सकी। व्यथित जी अब भी पटना आते हैं, लेकिन आलोकधन्वा का नाम उन्हें उत्तेजित नहीं कर पाता।

एक दिन मैं स्वरूप विद्या निकेतन स्कूल में अपनी कक्षा से ज्योंही निकला तो पाया कि आलोकधन्वा निदेशक जनार्दन सिंह से बातचीत में उलझे हुए हैं। बहस का विषय था कि बच्चों को पीटा जाये अथवा नहीं। जर्नादन सिंह जहां बच्चों को पीटने के लाभ बता रहे थे वहीं आलोक उसे 'सामंती समाज की देन` बता रहे थे। दरअसल वे अपने वकील भाई के बेटे को छात्रावास में दाखिला दिलाना चाहते थे। जनार्दन सिंह अर्थात बच्चों के स्वघोषित 'चाचाजी` को आलोकधन्वा सामंतों का लठैत घोषित कर चल निकले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा-'चलिए राजू भाई, आज पैसों की दिक्कत नहीं है।` बेली रोड स्थित बेलट्रॉन भवन में कोई कार्यशाला चली थी, उसके पैसे थे उनके पास। मैं 'न` नहीं कह पाया और चल दिया। डाकबंगला के पास पहुंच कर एक साफ-सुथरी (महंगी भी) दुकान से ब्रेड तथा नाश्ते का अन्य सामान लिया। अपने घर के पास हरा चना भी खरीदा। हमदोनों घर में दाखिल हुए। मुझे ड्राइंर्ग रूम में बिठा कर आप खुद एप्रन में बंधे किचेन में जा घुसे। हमलोगों ने साथ-साथ नाश्ता लिया। अपनी मशहूर काली चाय भी पिलायी। थोड़ा निश्चिंत होने पर मैंने पूछा 'घर में कहीं` क्रांति नहीं दिख रही हैं?` थोड़ी देर मौन साध कर बोले, 'वह ड्रामा करने गयी है`।

माइक थेवर को जानना जरूरी है

व्यक्तित्व

  • रवीश कुमार


माइक तेवर। हजार शोहरतमंद नामों में एक गुमनाम। मगर काम बेहद जरूरी। माइक थेवर वह काम कर रहे हैं जिसकी हिम्मत बड़े-बड़े उद्योगपतियों को नहीं हो सकी। माइक की एक कंपनी है। अमरीका के फिलाडेलफिया शहर में। १६० करोड़ टर्नओवर वाली कंपनी। माइक ने १५ साल की कड़ी मेहनत से तैयार की है। इसकी एक नीति है जो नई बहस और साहस के लिए प्रेरित करती है।

माइक अपनी कंपनी के लिए सौ फीसदी अफरमेटिव एक्शन के तहत लोगों को नौकरी देते हैं। अफरमेटिव एक्शन यानी जब कंपनी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आगे लाने के लिए नौकरियां देती हैं। अमरीका में सारी बड़ी कंपनियां ऐसा करती हैं। वहां के बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट में भी अफरमेटिव एक्शन लागू है। यानी तथाकथित मेरिट नहीं होने पर भी नौकरी।

माइक अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के लड़कों को नौकरी देते हैं। हाल ही में उन्होंने २५ लड़कों का चयन किया है। इनमें से कोई भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखता है। अमरीका न हिन्दुस्तान में। लेकिन माइक इन्हें मुंबई में अमरीकन अंग्रेजी की टे्रनिंग देंगे फिर ले जाएंगे। इससे पहले भी वह १५ लड़कों को नौकरी दे चुके हैं। ये लड़के मुंबई के धारावी के रहने वाले हैं। ज्यादातर के मां बाप बड़ा पाव बेचने और आटो चलाने वाले हैं। वे अब अपने घर हर महीने पच्चीस हजार भेजते हैं। मां बाप की भी जिंदगी बदल रही है।

ये लड़के नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई-सामाजिक और आर्थिक रूप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वह शायद दुनिया की अकेेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति बाइस या सत्ताईस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरियां अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।

माइक कौन हैं? वह केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी में आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंर्स की डिग्री ली। टाटा इस्‍टद्ययूट ऑफ सोशल साइंर्स से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कॉलरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक कामयाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी जिम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके के युवाओं को मौका देने का। जिस समाज से उन्हें मिला वह उसे वापस करना चाहते थे।

इसी जिम्मेवारी को अनुभव करने के कारण उनकी कंपनी की लाजवाब नीति सामने है। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वह आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।

यह कहानी इसलिए सुनाई कि कुछ दिन पहले भारत के एक बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वह दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेंनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई बाप की जमीन पर उद्योग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की जमीन और आप दुनिया से कंपीट कर सकंे उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान है या नहीं? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं, अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए वे गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वे सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थैवर को जानना जरूरी है।

(एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार को गत माह हिन्दी पत्रकारिता के लिए प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला है। जन विकल्प की ओर से बधाई!)

पांच सौ वर्ष पुराना है कश्मीर की गुलामी का इतिहास


फिल्मकार संजय काक से अनीश अंकुर की बातचीत

कश्मीर पर फिल्म बनानी चाहिए यह ख्याल कैसे आया? 'जश्न-ए-आजादी` बनाने के पीछे कोई खास मकसद?

संजय काक : नर्मदा पर डाक्यूमेंट्री बनायी थी। वहां जाने का उद्देश्य साफ था, कुछ सवाल थे कि लोगों का राज्यसत्ता से क्या संबंध है? वे कैसे निगोशिएट करते हैं? सुप्रिम कोर्ट का निर्णय आनेवाला था। मूवमेंट में भी कई सवालों के बारे में उलझन थी। उस डाक्यूमेंट्री का नाम था 'पानी पर लिखा` (वर्ड्स ऑन वाटर)। मैंने पंजाब की दलित रैली के दौरान एक दलित से पूछा 'क्यों वोट करते हैं?` तो उसने कहा एक ही हथियार है। नर्मदा के दौरान जनतंत्र का और पहलू सामने आया। यह लगा कि सिस्टम के जितने चेक्स एंड बैलेंसेस ;बीमबो ंदक इंसंदबमेद्ध हैं, वे फेल हो चुके हैं। पूरी व्यवस्था बुनियादी तौर पर निष्क्रिय हो चुकी है। किस किस्म की ताकतों की चलती है, यह सब साफ होने लगा। नर्मदा वाली डाक्यूमेंट्री मैं सफल मानूंगा। अभी भी उसकी सीडी खरीदने को लेकर ई-मेल आते हैं। खासकर शिक्षा-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों की ओर से। इसी बीच २००१ में संसद पर हमला हुआ। एस.ए.गिलानी के डिफेंस लॉयर ने मुझसे संपर्क किया कि कश्मीरी में कुछ अनुवाद करना है। मेरी कश्मीरी ठीक-ठाक है। पर उन लोगों को कश्मीरी पंडित चाहिए था। क्योंकि उनकी समझ थी कि उसका अनुवाद कोई कश्मीरी पंडित ही करे। लगा कि कोर्ट में ये क्या हो रहा है? उन्होंने कहा कि सबसे पूछ चुकी हूं कोई तैयार नहीं है। मुझे लगा ये क्या स्थिति है? किस तरह की दरार कश्मीरी मुसलमान एवं हिन्दुस्तान के बीच बनी हुई है? कैसे व्यवस्था उस दरार को बढ़ाने में ही लगी हुई है? नंदित हवसर (डिफेंस लॉयर) ने एक ऑल इंडिया कमिटि बनायी तो उस काम में लगा। फिर केस को बारीकी से फॉलो किया। मैं जितना कुछ जानता गया उतना ही हताश होता चला गया। कितने सांप्रदायिक तरीके से स्टेट की तरफ से डील हो रहा है। पहली दफा लगा कि हमारी भी कोई जिम्मेवारी है। पहले कश्मीर १९८९ में गया था फिर १४ साल बाद २००३ में गया। बेटी १३-१४ साल की थी उसे भी ले गया यह देखने कि हो क्या रहा है वहां? मुझे बेहद धक्का लगा कि कश्मीर को क्या हो गया। २००३ से २००७ के बीच सेना काफी रिड्यूस कर दी गयी है। २००३ में तो एयरपोर्ट से लेकर घर तक हर २० मीटर पर बंकर, चेकपोस्ट देख लगता था कि आक्यूपाइड टेरिटरी (Occupied territory) में हैं।

नर्मदा वाली डाक्यूमेंट्री को ब्राजील फिल्म उत्सव में एक अवार्ड मिला तो मैंने सोचा कि वहां से जो पैसा मिला है उसे कश्मीर पर फिल्म बनाने के लिए लगाऊंगा। जब दूसरी बार कश्मीर गया तो अकेला था। १२-१३ अगस्त का गया, तो सबने कहा कि अजीब समय पर आए हो। १४ अगस्त को पाकिस्तान इंडिपेंडेंस डे है। १५ अगस्त का इंडिया का। १३ अगस्त से ही हड़ताल सा माहौल रहता है। मेरा घर लाल चौक पर है। १५ अगस्त को जब घर से निकला तो आदमी तो क्या एक परिंदा तक न था। जिसे वहां लोग सिविल कर्फ्यू कहते हैं, जबकि आम दिनों में लाल चौक इलाका काफी व्यस्त रहता है। व्यवसायिक परिसर है पर १५ अगस्त को अजीब सन्नाटा था। कश्मीर पर यह मेरी जो फिल्म है, उसका मकसद ही है १५ अगस्त के उस सन्नाटे को समझने की कोशिश। शाम ३-४ बजे तक कोई न निकला उस दिन। मेरी फिल्म की शुरूआत २००४ के १५ अगस्त से होती है। फिल्म का टाइटिल भी उसी से जुड़ा है। 'जश्न-ए-आजादी` उसका अंग्रेजी अनुवाद है : "How we celebrate our freedom." में हम २ ही आदमी थे, मैं और मेरा कैमरा मैन। साउंड मैं ही करता था। ६ बार गया। ४०-४२ दिन की शूटिंग हुई। मैंने डाक्यूमेंट्री में न तो कश्मीर का इतिहास का बयान करने की कोशिश है और न ही किसी किस्म का विश्लेषण या स्पष्टीकरण की कोशिश है। यह सब तो कोई भी किताब उठाकर जान सकता है। जो बात नहीं मिलती है कि कश्मीरियों के अनुभव, उनकी भावनाएं क्या है? वे सोच क्या रहे हैं? यदि हम मास मीडिया पर भरोसा करें तो समझना न समझना बराबर है। अखाबार, टेलीविजन के जरिए कश्मीर को नहीं समझा जा सकता। मीडिया ने अपनी स्वतंत्रता वहां गवां दी है। सरकार की लाइन एवं मीडिया की लाइन लगभग एक है। मैं मीडिया की कोस नहीं रहा दबाव रहता है। पर दबाव तो आप पर हमेशा रहता है।

हम सब एक राष्ट्रवाद के जाल में फंसे हैं हरेक यही सोचता है कि कश्मीर में मीडिया सरकार का बिना सवाल पूछे समर्थन करता है तो यह काम देश हित में हो रहा है। यह मेरे ख्याल में ठीक नहीं। मीडिया को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। ऐसे में इंडिपेंडेंट डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर की जिम्मेवारी है कि जहां मेनस्ट्रीम मीडिया ईमानदारी से कवर नहीं कर पा रहा वहां उसका बहुत अह्म रोल है। मेरी फिल्म कश्मीरियों के लिए नहीं बनी है बल्कि पटना, मुबई और बंगलोर के लिए बनायी गयी है।

एक आम भारतीय के मन में कश्मीर को लेकर जो विचार आते हैं, अब तक जो समझ कश्मीर को लेकर बनी हुई है उसमें क्या दिक्कतें हैं? आपकी यह फिल्म 'हमारी पारंपरिक समझ से किस किस्म का रिश्ता बनाती है?

संजय काक : यदि आप १०० लोगों से पूछें कि कश्मीर-मसला क्या है? तो वे कहेंगे कश्मीर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच का मसला है। हिन्दुस्तान की जमीन है पाकिस्तान डिस्टर्ब कर रहा है। वह डिस्टर्ब करना छोड़ दे तो सब ठीक हो जाएगा। बड़ा साधारण सा मामला है जिसमें कश्मीरी या तो गायब है या फिर पिस रहा है, दो बड़े पावर के बीच। कश्मीरियों को स्वायत्तता नहीं दी जाती। वे किस नजरिऐ से देखते हैं? हिन्दुस्तान को लगता है कि आजादी वगैरह पाकिस्तान का मसला है। हमें यह तो समझना चाहिए कि आजादी की उनकी मांग क्या है?

कश्मीर को जानने वालों में दो तरह का नजरिया रहता है। एक तो हार्डलाइनर दूसरा लिबरल प्रोग्रेसिव नजरिया। जिसके अनुसार यह मानवाधिकार का मसला है, हिरासत में लेकर हत्या जैसे घटनाएं नहीं होनी चाहिए, आदि। जबकि मुख्य जरूरत है कि कश्मीर मामले पर लोगों को राजनीतिक स्तर पर शामिल करें कि भई आखिर वहां के लोग कह क्या रहे हैं?

यदि आप नर्मदा पर फिल्म बनायें तो लिबरल तबका कहेगा कि बहुत बढ़िया है, ये स्टेट क्या कर रहा है? कश्मीर पर फिल्म बनायें तो ये तबका भी काफी सोचकर आएगा कि आजादी की बात कहां से आई? कल बातचीत में किसी ने कहा कि कश्मीर के लोग राष्ट्र विरोधी हो गए हैं, आप ऐसे कैसे हो गए? दरअसल राष्ट्र का आपका जो कांसेप्ट है उसमें कश्मीर फिट नहीं बैठता। ये जरूरी नहीं कि कश्मीर के बारे में राय तुरंत बदल जाएगी पर लोग इतना तो सोचना शुरू कर दें कि निर्णय लेने का उनका हक बनता है कि वे इंडिया के साथ रहें या नहीं। अभी तो हम हिन्दुस्तान में इस समझ से भी काफी दूर हैं।

इस देश का प्रोग्रेसिव, ले‍फि़टस्‍ट समाज वही समझ तो नहीं रखता जो सरकार रखती है? कश्मीर को लेकर यहां के राजनैतिक नेतृत्व में भी अलग-अलग राय रही है।

संजय काक : जो हमारा लिबरल, प्रोग्रेसिव, ले‍फि़टस्‍टट समाज है वह वहां मूवमेंट का जो इस्लामिक स्वरूप है, उससे कतराता है। इस कारण जो लोग उस मूवमेंट के सिंपैथाइजर हो सकते थे वे एक दूरी रखते हैं। फिल्म में हमने इसे संबोधित (ऐड्रस) करने की कोशिश की है। मंगलेश डबराल ने इस फिल्म की समीक्षा में बिल्कुल सही पकड़ा है जब कोई दूसरा विकल्प नहीं रहता तो इस्लामिक रास्ते के सिवा कुछ बचता नहीं है।

जयप्रकाश नारायण इस देश में एकमात्र ऐसे नेता थे जो मानते थे कि राइट टू सेल्फ डिटरमिनेशन (Right to self determination) होना चाहिए। अस्सी व नब्बे के दशके में वाहिनी वाले लोग भी मानते थे कि हां अलग होने का हक बनता है। जयप्रकाश नारायण की स्टेटेड पोजीशन (Stated position) थी। आंध्रप्रदेश के सिविल लिबर्टीज, पीयूसीएल के लोगों ने एक रिपोर्ट बनायी थी कि कश्मीर में दरअसल सेना का कब्जा है। लेकिन नब्बे के दशक के मध्य तक आते-आते ऐसे सारे लोग गायब हो गए। जेकेएलएफ (जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) एक सेक्यूलर संगठन था। बाद में हिज्बुल मुजाहिदीन, जो प्रो-पाकिस्तानी संगठन था, ने चुन-चुन कर सेक्यूलर लोगों को मारा। जब हिज्बुल का प्रभाव बढ़ा तो उसके पाकिस्तान परस्त होने की वजह से ऐसे लोग ठंढ़े पड़ गए। कश्मीर के बाहर के जो लोग पहले समर्थन दे रहे थे वे भी डर गए कि एक प्रो-पाकिस्तानी ताकत को कैसे समर्थन देंे?

कहीं आप यह तो नहीं कहना चाह रहे कि इंडियन स्टेट का भी हित ऐसी ताकतों को बढ़ावा देने का रहा है?

संजय काक : सौ फीसदी स्टेट का रोल रहा है। यह समझ कि वे सिर्फ पाकिस्तानी हैं, गलत है। इस आंदोलन से नब्बे के दशक की शुरूआत में वैसे सेक्यूलर, लिबरल जो कश्मीरी सेंटीमेंट से जुड़े थे, उनमें से कईयों को मार डाला गया। किसने मारा? इस पर आज तक विवाद है। जैसे एक प्रसिद्ध वकील की हत्या हुई। वह आतंकवादियों का केस लड़ते थे। एक ऐसा आदमी जो मिलीटेंट का केस लड़ता है उसे वही लोग क्यों मारेंगे? स्थानीय लोग कहते हैं कि उस वकील को इंटेलीजेंस के लोगों ने मरवाया। राज्यपाल जगमोहन के बाद कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ फिर भारत सरकार ने यह कहना शुरू कर दिया कि देखो ये तो पाकिस्तान चाहते हैं।

दोनों देशों के लिए कश्मीर बेहद परेशानी का सबब रहा है क्या कश्मीर के समस्या का हल दोनों देश के बंटवारे के वक्त (१९४७) में नहीं खोजा जाना चाहिए? १९४७-४८ में क्या ऐसी वजह बनी कि ६० वर्षों पश्चात भी बजाए सुलझने के कश्मीर उलझता जा रहा है?

संजय काक : मेरा अपना मानना है कि कश्मीर की समस्या को १९४७ से देखना सही नहीं है। वहां की ९५ प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या के उपनिवेशीकरण, गुलामी का इतिहास ५०० वर्ष से अधिक पुराना है। १४०० ई. के करीब तक कश्मीरी राजा था। अफगान, मुगल, सिख, डोगरा आए, हर १०० बाद एक नई साम्राज्यवादी सत्ता आई। डोगरा महाराज ने अंत में सिक्खों से कश्मीर को ६० लाख में खरीदा था। कश्मीर के लोगों में सांस्कृतिक स्तर पर, मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह बात घर कर गई है कि हम उपनिवेश हैं। १९३० में शेख अबदुल्ला ने सामंतवाद विरोधी संघर्ष चलाना शुरु किया। जब डोगरा महाराज का राज चला गया तो लोगों को लगा कि अब हमारा राज आ गया। शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से बचने के लिए हिन्दुस्तान से जुड़े। वे वैचारिक रूप से नेहरू के नजदीक थे। वे सेक्यूलर हो चुके थे। वहां के लोग काफी आशान्वित थे। १९५१-५२ से गड़बड़ शुरू हो गई। आपको जानना होगा कि १९५० में जो भूमि सुधार कश्मीर में हुआ उससे लोगों की आकांक्षा काफी बढ़ गयी थी। बहुत ज्यादा। ५०० वर्षों से जो गुलामी की दंश झेल रहे किसान, काश्तकार थे उन्हें लगा कि हमारा राज आ गया। उसके जवाब में आपने क्या किया? उनके सबसे बड़े नेता को जेल में ठूंस दिया, तो गुस्सा स्वभाविक रूप से बढ़ेगा, ये तमाम चीजें आपको कश्मीर की आंतरिक गतिशलता को समझने में मदद करंेगी। यह सिर्फ हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का मामला नहीं है। जेकेएलएफ १९६६ में मकबूल भट्ट ने शुरू किया था, जिसे बाद में फांसी लगायी गयी। राजनीतिक स्तर पर काफी कुछ चल रहा था। १९८९-९० से सामरिक पहलू (Militant asfeet) प्रधान होता गया। अफगान की जंग (१९७९-८९) खत्म हुई। पाकिस्तान को भी लगा कि सोवियत रूस को हरा दिया तो कश्मीर क्या चीज है? तो आर्म्ड मिलीटेंसी शुरू हो गयी।

आपके कहने का मतलब है कश्मीर के लोगों में गुलामी से मुक्ति एवं आजादी की कई सौ वर्षों पुरानी ख्व़ाहिश है। इसलिए कश्मीर के लोग मुख्यत: आजादी चाहते हैं भारत-पाकिस्तान दोनों से? मान लीजिए कश्मीर स्वतंत्र भी हो जाए विश्व स्तर या राजनैतिक शक्ति संतुलन अमेरिका के पक्ष में जिस कदर झुका है वैसे में कश्मीर के स्वतंत्र देश के बजाए दक्षिण एशिया में एक अमेरिका अड्डा बन जाने का खतरा नहीं होगा?

संजय काक : देखिए कश्मीर के लोग क्या चाहते हैं? हमें यह वहां लोगों से पूछना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? आजादी या और कुछ? लोग क्या चाहते हैं यह हम तभी जान पायेंगे जब उन्हें थोड़ी ढील दी जाएगी। यदि चुनाव करवाना है तो सैनिक कंपनी मौजूद नहीं रहनी चाहिए अन्यथा आप स्वतंत्र चुनाव नहीं करा सकते। कश्मीर में २० साल से मेजर बैठा हुआ है तो कैसे 'इलेकशन` होगा। आप कश्मीर के किसी भी छोटे शहर कुपवाड़ा, पांडीपूर आदि जायेंगे तो बोर्ड पर लिखा मिलेगा टाउन कमांडर-फलां-फलां। ऐसे में फ्री एंड फेयर इलेक्शन कैसे हुआ? कश्मीर में एसडीओ, बीडीओ, सरपंच, डीएम जैसी कोई चीज नहीं है। सब कुछ फौज के हाथ में है। तो सबसे पहला काम कश्मीर में सेना की वापसी, (De-miliratisation) होना चाहिए, कम से कम राजनीतिक कार्यकलाप सामान्य हो जाए। मैं कहना चाहता हूं कि यदि आपके आस-पास सात लाख सैनिक रहेंगे तो आपका जीवन कैसा होगा? पूरी दुनिया के सबसे ज्यादा मिलिटिराइज्ड जोन (सैन्यीकृत इलाके) में लगातार रहने पर आप कैसा महसूस करेंगे? इराक को कब्जे में रखने के लिए जितनी अमेरिकी सेना है उससे ज्यादा भारतीय फौज कश्मीर पर कब्जे के लिए तैनात की गयी है। खुफिया ऐजेंसियों का जाल बिछा है, इन पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे है। क्या वहां वही हो रहा है जो हमें बताया जा रहा है या दिखता है उपर से।

आप हमारे पाठकों को अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि के बारे में भी बतायें। डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने की ओर कैसे रूख किया?

संजय काक : बीए अर्थशा से किया जबकि एमए समाजशा में-उस वक्त न्यूज पेपर जर्नलिज्म में जाने की ख्वाहिश थी। फिर किसी ने मुझे रिसर्च करने के लिए बुलाया। पहले जो एकेडमिक शिक्षा थी उसमें किसी चीज को गंभीरता से देखने का मौका न था। डाक्यूमेंट्री फिल्मों की तरफ जब बढ़ा तो पता लगा कि इसमें किसी भी मुद्दे पर पहले गंभीरता से रिसर्च करते हैं फिर उसे फिल्मों में अभिव्यक्त करते हैं। डाक्यूमेंट्री में काम करते हुए मुझे लगा कि यह एक इवाल्वड किस्म का फॉर्म है, इसमें काफी पोटेंशियल है। पिछले चार-पांच वर्षों से लग रहा है कि अच्छी फिल्मों का दौर है। अस्सी के दशक मंे टी.वी. का निजीकरण शुरू हो रहा था। दूरदर्शन की मोनोपॉली खत्म हो रही थी। इन सबके बीच २-३ साल काम किया। फिर चुनाव पर एक कार्यक्रम बनाया। प्रणव राय ने इसे अपने प्रोडक्शन में लिया। आज जैसी दुर्गत है इन सबकी, तब ऐसा न था।

१९९० के लगभग से मैं मुख्यत: डाक्यूमेंट्री पर काम कर रहा हूं। कई तरह की फिल्में बनायी हैं। डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकिंग का काफी बड़ा स्कोप है। १९९७ में आजादी की स्वर्ण जयंती पर डाक्यूमेंट्री बनायी। पंजाब में आतंकवाद के बाद औपचारिक चुनाव (formal election) जो हुआ उसे शूट किया। फिर तमिलनाडु में एक दलित रैली को। इन दोनों को लेकर देखा कि क्या बनता है? इनसे काफी बेचैन करने वाला अनुभव हुआ। पिछले १० वर्षों से जो भी किया, लगता है उस प्रथम डाक्यूमेंट्री के दौरान उठे सवालों के ही जवाब ढूंढ रहा हूं।

१५ अगस्त का सन्नाटा

संजय काक की डॉक्यूममेंट्री फिल्म १५ अगस्त, २००४ के से प्रारंभ होती है। कश्मीर के लाल चौक पर स्वतंत्रता दिवस के दिन एक अजीब सा सन्नाटा छाया है। फिल्म इस विचलित करने वाले सन्नाटे को समझने की कोशिश करती है। कश्मीर के मसले पर संवेदनशील लोगों की चुप्पियों पर सवाल खड़े करने वाली इस फिल्म 'जश्न-ए-आजादी` का अंग्रेजी नाम है "How we celebrate our freedom." जिसे संजय काक, जो खुद दिल्ली में रहने वाले एक कश्मीरी पंडित हैं, ने २००४ से २००६ के बीच शूट किया है। डॉक्यूमेंट्री २००४ से १५ वर्ष पीछे १९८९ तक जाती है। इसी वर्ष से वहां आजादी की मांग को लेकर सश संघर्ष प्रारंभ हुआ था।

फिल्म की शुरुआत में ही बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती, संगीनों की मौजूदगी, कंटीले तारों की उपस्थिति यह बताती है कि कश्मीर में कुछ भी सामान्य नहीं है। वहां आज हर १५ नागरिक पर एक सैनिक मौजूद है। लगभग सात लाख सैनिकों को कश्मीर में तैनात कर भारत सरकार ने उसे दुनिया के सबसे बड़े सैन्यीकृत जोन में तब्दील कर दिया है। आज यह 'धरती का स्वर्ग` नहीं शायद धरती का सबसे बड़ा कारागार है। 'जश्न-ए-आजादी` का मुख्य विषय इस सैन्य कब्जे के बरक्स आम कश्मीरियों की प्रतिक्रिया को सामने लाना और पिछले १७ वर्षों से चल रहे अलगाववादी आंदोलन की तडं तलाशना है। निर्मम मुठभेड़, भयंकर विध्वंस, हजारों की संख्या में बेकसूर कश्मीरी नौजवानों की हत्या, इतने ही लोगों को लापता होना; फिल्म इन सबको सामने लाती है। फिल्म हिंसा के राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक परिणााम क्या हैं, इसको भी समझाने की कोशिश करती है।

फिल्म में निर्देशक ने दो बार १२वीं सदी के इतिहासकार कल्हण को उद्घृत किया है 'कश्मीर को कभी भी फौजी ताकत के बलबूते नहीं जीता जा सकता। कश्मीर जीता जा सकता है तो सिर्फ आध्यात्मिक प्रतिभा (Spiritual merit) से।`

फिल्म के कई दृश्य स्तब्ध कर देने वाले हैं। जैसे बर्फ से ढंकी शहीदों की कब्रगाह (दाहिने, प्रकाशित चित्र में फिल्म में दिखाई गई कब्रगाह, जिसमें नई कब्रों के लिए जगह तक नहीं बची है।) में एक बूढ़ा पिता १० वर्ष पूर्व मारे गए अपने बेटे की कब्र ढूंढने की कोशिश करता है पर ढूंढ नहीं पाता। कई गांवों के लोगों से जब यह पूछा जाता है कि कितने लोगों की हत्या हुई, कितने गायब हुए तो उनके द्वारा ऐसे लोगों की संख्या को लेकर लगाया जाने वाला अनुमान बेहद तकलीफदेह अनुभूति कराता है।

एक प्रभावी दृश्य में पारंपरिक लोक कलाकार अपनी विशिष्ट वेशभूषा में आजादी की गहरी आकांक्षा को सामने लाते हैं। फिल्म के एक हिस्से में भारतीय सेना द्वारा निरीह बूढ़े कश्मीरियों को बंदूकों के साये में फिलिप्स के रेडियो बांटने का दृश्य कश्मीर की विडंबना को सामने ला देता है। ऐसे ही हिंसा के शिकार एक महिला का मनौवैज्ञानिक संतुलन इस कदर बिगड़ जाता है कि वह हर वक्त, यहां तक कि सोते समय स्वप्न में भी, खून, और लाश ही देखती रहती है। यहां मनोविश्लेषक एवं मोटिवेशनल एक्सपर्ट का संवाद है: 'लोग सोचतें हैं कि वे किसी भी किस्म के बदलाव के खिलाफ रहते हैं जबकि ऐसा नहीं होता। लोग बदलाव से होनवाले हानि की वजह से ऐसा करते हैं। वे बदलाव के प्रति जड़ पूर्वाग्रह की वजह से उसका विरोध करते हैं।`

'जश्न-ए-आजादी` कश्मीर के मरते पर्यटन उद्योग को भी सामने लाती है। कश्मीर में आनेवाला एक सैलानी जब यह कहता है 'कश्मीर भारत का हृदय है` तो जख्म़ एवं घावों से भरे कश्मीरी हृदय की त्रासदी ही उद्घाटित होता है।
फिल्म को जो दृश्य खास बनाता है वह है मारे गए कश्मीरी नौजवानों, जिन्हें सरकार आतंकवादी कहती है, की शवयात्रा में हजारों लोगों का गीत गाते, नारा लगाते चलना : 'हमें चाहिए आजादी.. ले के रहेंगे आजादी`। स्वतंत्रता की अनादि चाहत से भरे नारे गूंजते हैं 'तुम डंडे बरसाओ.. तुम गोली चलाओ, तुम आग लगा दो.. तुम कुछ भी कर लो.. हम तो कहेंगे-आजादी!` फिल्म की शुरुआत एवं अंत में हजारों लोगों का गुस्से एवं दु:ख से भरे शवयात्राओं में शामिल होने का दृश्य भी संवेदनशील मन को झकझोरने तथा कश्मीर के नाम पर राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली भाररतीय संसद को सकते में डालने वाला है। बीच-बीच में नैरेशन एवं वायस ओवर भी चलता रहता है। नैरेटर खुद निर्देशक हैं। एक जगह एक महत्वपूर्ण टिपप्णी की जाती है 'दुनिया के इस सबसे सैन्यीकृत इलाके से निकलने वाला सबक यही है वर्चस्व का मतलब जीत नहीं होता।`

संजय काक की यह फिल्म कश्मीर के बारे में अंधराष्ट्रवादी प्रचारतंत्र के साए में पले दिमाग की समझ एकाएक तो नहीं बदल सकती। हां इतना अवश्य करती है कि असहज करने वाले कुछ सवाल खड़े करती है। हर अच्छी फिल्म दरअसल यही करती है।

(जश्ने-ए-आजादी` का प्रदर्शन जून, २००७ में पटना के हिन्दी भवन में किया गया था।)

समीक्षा : अनीश अंकुर

शांति प्रक्रिया का परिप्रेक्ष्य

कश्मीर



  • राम पुनियानी



कश्मीर का खून पिछले कई दशकों से बह रहा है। निश्चित तौर पर पिछले कुछ सालों में समस्याओं की तीव्रता घटती दिखी है, हालांकि यह पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। हरी वादी में लाल धब्बे हैं। चरमपंथियों और सश बलों के खून के लाल धब्बे। कश्मीरियों की हत्याओं, चरमपंथियों द्वारा हत्याओं और दूसरी अन्य झड़पों की निरंतर खबरें आती हैं। सेना और चरमपंथियों के बीच की गोलीबारी में अनेक आम कश्मीरी नागरिक मारे जाते हैं। जबकि पाकिस्तान 'द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत` के आधार पर दावा करता है कि कश्मीर पाकिस्तान का है, भारत दावा करता है कि विलय की संधि के आधार पर कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। जब इन देशों में से कोई भी बातचीत चाहता है, दूसरा पीछे हट जाता है और दो राष्ट्रों के बीच लुका-छिपी का खेल होने लगता है। इन सब के असली पीड़ित कश्मीरी लोग हैं और कश्मीरियत है, जो इस धरती की विशिष्ट और गौरवशाली धरोहर है।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय पर एक नजर डालना आज के कश्मीर के विक्षोभ में योगदान दे रहे प्रमुख कारकों को समझने में हमारी मदद करेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दोनों सांप्रदायिकों, मुस्लिम लीग एक तरफ और हिंदू महासभा-आरएसएस दूसरी तरफ, और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की समझ एक जैसी थी। ब्रिटिशों के भी 'बांटो और राज करो` की नीति के आधार पर अपने साम्राज्य के हित थे, जिनके लिए दोनों रंगों के ये सांप्रदायिक उनकी कठपुतली बन गये। उपनिवेशवादियों और सांप्रदायिकों के गहरे कपटपूर्ण रिश्ते थे। सांप्रदायिकों ने ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष नहीं किया। ब्रिटिशों ने उन पर कभी लगाम नहीं लगायी, उस समय को छोड़ कर जब वे एक-दूसरे से नफरत करने में सीमाएं लांघने लगे। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिकों और उपनिवेशवादियों के इस मुकम्मल सैद्धांतिक गंठजोड़ का नतीजा विभाजन की त्रासदी के रूप में सामने आया।

कश्मीर मुद्दे के इतिहास पर आते हैं, स्वतंत्रता के समय ५००० से अधिक रजवाड़े थे। इन रजवाड़ों को तीन विकल्प दिये गये। १. भारत में विलय, २. पाकिस्तान में विलय, ३. स्वतंत्र रहना। राजाओं को भौतिक निकटता और जनमत के आधार पर निर्णय लेने के दिशा-निर्देश दिये गये। अधिकतर राज्यों की समस्याएं आसानी से सुलझ गयीं जबकि हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के शासकों ने निर्णय लेने में हिचक दिखायी। हैदराबाद और जूनागढ़ सैन्य कार्रवाई के जरिये भारत में मिले।

जम्मू-कश्मीर ८० प्रतिशत से अधिक मुसलमानों के साथ मुस्लिम बहुल राज्य था। कश्मीर के राजा हरि सिंह स्वतंत्र बने रहना चाहते थे और उनका कश्मीर को एशिया के स्विट्जरलैंड की तरह विकसित करने का इरादा था। उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों को यथास्थिति बरकरार रखने की संधि का प्रस्ताव दिया। पाकिस्तान ने संधि स्वीकार ली, भारत ने इनकार कर दिया। कश्मीर की स्थिति के बारे में किसी अंतिम निर्णय तक पहुंच सकने से पहले ही, पाकिस्तान ने कश्मीर पर चढ़ाई कर दी, कबीलों के भेस में सेना के जरिये। कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। जिन्ना अपने पड़ोस में एक स्वतंत्र मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य (कश्मीर) का होना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। तर्क था कि चूंकि कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, इसलिए उन्हें पाकिस्तान में मिल जाना चाहिए। यही वह वजह थी जिस कारण कबीलाइयों के भेस में पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया।

इसी तरह प्रजा परिषद (जो कि भाजपा के पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ का पूर्ववर्ती थी) के पंडित प्रेमनाथ डोगरा, ने हिंदू राजा को सलाह दी कि वे एक धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ 'हिंदू राज्य` (कश्मीर) का विलय न करें। उनका मानना था कि राज्य की प्रकृति राजा के धर्म से निर्धारित होती है। पंडित डोगरा जैसे लोग कैसे हैदराबाद को कैरेक्टराइज करते होंगे, जहां का शासक एक मुसलिम था?

कश्मीरी लोग पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे। पाकिस्तानी हमले के सम्मुख जब हरि सिंह अपनी सुरक्षा में भाग खड़े हुए, शेख अब्दुल्ला ने बड़ी जिम्मेवारियां निभायीं। अगर शेख अबदुल्ला जिन्ना-सावरकर के राजनीतिक स्कूल से निकले होते तभी वे मार्च करती हुई पाकिस्तानी सेना के आगे पाकिस्तान में विलय पसंद कर सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं था। वे कश्मीरियत को पसंद करने वाले लोगों में थे। कश्मीरियत जो सूफी, ऋषि और बौद्ध परंपराओं से मिल कर बनी संस्कृति है, इसी समन्वयवादी संस्कृति की श्रेष्ठता के लिए, न कि इस या उस धर्म के लिए। वे हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़े हुए। जब पाकिस्तानी कबीलों ने कश्मीर पर हमला किया, नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख शेख अबदुल्ला ने हमले के बाद के परिदृश्य में बड़ी भूमिका निभायी। कश्मीर के तत्कालीन राजा ने दूतों के जरिये भारत से कश्मीर को बचाने के लिए सेना भेजने के लिए बात चलायी। शेख अब्दुल्ला ने इसका समर्थन किया और सुनिश्चित किया कि भारतीय सेना हस्तक्षेप करे।

नेहरू ने कहा कि जब तक कोई समझौता नहीं हो जाता, भारत उस राज्य में सेना नहीं भेज सकता, जहां इसका कोई वैधानिक आधार नहीं है। इसके बाद राज्य के लोगों के लिए अनुच्छेद ३७० के सुरक्षाकवच के साथ एक समझौते का प्रारूप बना। संधि का सिद्धांत था 'दो प्रधान, दो विधान।` भारत को सुरक्षा, विदेश मामले, संचार एवं मुद्रा व्यवस्था देखनी थी, जबकि असेंबली बाकी दूसरे मामलों में फैसला लेगी। भारतीय संविधान के प्रावधान कश्मीर पर लागू नहीं होने थे, क्योंकि कश्मीर का अपना संविधान था। इन शर्तों के साथ भारत ने अपनी सेना भेजी। तब तक पाकिस्तानी सेना कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर चुकी थी। लोगों की जान न जाये, इससे बचने के लिए युद्ध विराम घोषित कर दिया गया और मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक, दोनों सेनाओं द्वारा अधिकृत कश्मीर में एक जनमत संग्रह कराया जाना था, जिसकी निगरानी संयुक्त राष्ट्र को करनी थी। यह अब तक नहीं हो पाया है। पाकिस्तान ने अपने कश्मीर को आजाद कश्मीर के बतौर घोषित किया। भारतीय हिस्से का भी अपना प्रधानमंत्री, सदरे रियासत था।

भारत सरकार बाद में कश्मीर की स्वायत्तता को धीरे-धीरे घटाते और क्षीण करते हुए उसे जबरन भारत में मिला लेने संबंधी, जनसंघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अन्य अतिराष्ट्रवादी तत्वों के, दबाव में आ गयी। कश्मीर के लोकप्रिय प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार के दबावों को नकार दिया। सांप्रदायिक दबाव बढ़ने पर ही वे अमेरिकी राजदूत के पास भी पहुंचे किन्तु स्वतंत्र कश्मीर का विचार बह गया। देशद्रोह के आरोप में कई सालों के लिए उन्हें जेल की सजा दे दी गयी और धीरे-धीरे कश्मीर के प्रधामंत्री का पद मुख्यमंत्री में और सदरे रियासत का पद राज्यपाल में बदल दिया गया और भारतीय संविधान की पहुंच कश्मीर तक विस्तारित हो गयी। भारत में सरकार ने कश्मीर के मामलों को सुपरवाइज करना शुरू किया। लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर से कमजोर होती गयी।

सभी केंद्रीय सरकारों ने कश्मीर के मामले में स्थानीय नेतृत्व पर अविश्वास के आधार पर काम किया है। १९८४ में फारूक अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और १९८७ के चुनावों में भारी धांधली के बाद घाटी के लोगों में मोहभंग की प्रक्रिया पूरी हो गई और युवा हिंसा के रास्ते की ओर बढ़ने लगे। इसने कश्मीरी युवाओं में एलियेनेशन की प्रक्रिया शुरू की। इसका नतीजा लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पाबंदी के कारण चरमपंथ के उभार के रूप में सामने आया। आंतरिक असंतोष ने आतंकवाद को समर्थन देना शुरू किया। इसे और आगे बढ़ाते हुए, पाकिस्तान ने अपने चरमपंथी भेजने शुरू किये और समस्या दिन-ब-दिन बदतर होती गयी। फिर फारूक अब्दुल्ला को सात वर्षों का लंबा कारावास दे दिया गया, जिसने दिखलाया कि केंद्रीय सरकार चुने हुए स्थानीय जनप्रतिनिधियों पर कतई विश्वास नहीं करती। दूसरा कारण था अलकायदा का प्रवेश। अलकायदा, जो अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए अमेरिका द्वारा खड़ा किया गया था, वहां अपना लक्ष्य पाने के बाद घाटी में प्रवेश कर गया।

८० के दशक में भारत में बदतर होते सांप्रदायिक परिदृश्य में कश्मीर के आतंकवाद ने आग में घी का काम किया। जबकि उसी दौरान कश्मीरी पंडितों और स्थानीय मुस्लिम आबादी के सद्भाव के बीच सांप्रदायिक नजरिया फैलाया जाने लगा। आतंकियों ने इस विकृति को और बढ़ाया। आतंकियों के एक हिस्से ने हिंदुओं को इसी उद्देश्य से निशाना बनाना शुरू किया। हिंदुओं मेंे भय और असुरक्षा की भावना व्याप्त हो गयी।

जगमोहन, जो कश्मीर के राज्यपाल नियुक्त हुए थे, इस आधार वाक्य पर काम करते थे कि सभी कश्मीरी मुसलमान आतंकवादी हैं और इसलिए यदि पंडित घाटी छोड़ दें तो वे चरमपंथियों से दृढ़ता से निपट सकेंगे। इसके बाद उन्होंने पंडितों के समक्ष घाटी छोड़ने का प्रस्ताव रखा। मुस्लिम समुदाय के स्थानीय नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया। मगर जगमोहन द्वारा प्रोत्साहित पंडितों ने घाटी छोड़ दी और शरणार्थी शिविरों में फटेहाल जिंदगी जीने लगे। यह भी जरूर उल्लेेख किया जाना चाहिए कि आतंकी हिंसा के पीड़ितों में बड़ी संख्या मुसलमानों की है जो या तो मारे गये या घाटी छोड़ कर चले गये। दो पड़ोसी देशों के बीच की समस्या को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। कश्मीरी नेतृत्व के पास पाकिस्तान में विलय के सारे मौके थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहां तक कि विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक आज भी अनेक कश्मीरी मुस्लिम पाकिस्तान में विलय का विरोध करते हैं।

भारतीय शासकों की नीतियों कश्मीरियों की मानवीय आकांक्षाओं के दमन, भारत सरकार द्वारा लोकप्रिय सरकारों की बार-बार बर्खास्तगी के नतीजे में तीव्र आक्रोश ;ंसपमदंजपवदद्ध के बावजूद कश्मीरी जनता आज भी पाकिस्तान को एक विकल्प के रूप में नहीं देखती। उसकी प्रमुख मांग होती है संधि में किये गये वादे के अनुसार उनकी स्वयत्तता को बरकरार रखा जाये; उनकी प्रमुख आकांक्षा है कश्मीर के एथनिक चरित्र को बचाये रखना एवं पाकिस्तानी दखलंदाजी और भारतीय राज्य के अविश्वास के फलस्वरूप होनेवाली गोलीबारी से दूर एक सामान्य जीवन जी सकना। हाल में कराये गये जनमत सर्वेक्षणों में से आउटलुक द्वारा कराये गये सर्वेक्षण (१६ अक्टूबर, २०००) से यह उजागर हुआ कि ७४ प्रतिशत लोगों के अनुसार जो जरूरत थी, वह थी-कश्मीर की अलग पहचान। १६ प्रतिशत वृहत्तर स्वायत्तता के पक्ष में थे और केवल २ प्रतिशत पाकिस्तान में विलय चाहते थे। ३९ प्रतिशत लोग अब भी महसूस करते थे कि समाधान भारतीय संविधान के दायरे में ही पाया जा सकता है। चरमपंथी गतिविधियों में तीव्रता १९९० के बाद आयी, १९८७ के चुनाव में धांधली के नतीजे के रूप में। हम कश्मीर में चरमपंथियों द्वारा हत्याओं और संपत्ति के विनाश पर एक नजर डालेंगे।

कश्मीरी पंडित विभिन्न दिशाओं से हो रही गोलीबारी के पीड़ित हैं। पंडितों का भारी संख्या में घाटी से पलायन घाटी की परंपराओं के लिए गहरा झटका है। आगे दर्ज आंकड़े चरमपंथियों द्वारा दोनों समुदायों के, न कि केवल हिंदुओं के नुकसानों को दिखाते हैं। पहले १९८६ में पंडितों ने सोचा था कि वे पलायन कर जायेंगे, लेकिन यह फैसला बहुलतावादी संस्कृति में रचे-बसे सद्भावना मिशन, जिसमें प्रतिष्ठित कश्मीरी शामिल थे, के तहत स्थगित कर दिया गया। १९९० में चरमपंथ खड़ा हुआ। इस समय हार्डकोर दक्षिणपंथी मिस्टर जगमोहन कश्मीर के गवर्नर थे और उन्होंने पंडितों के गुडविल मिशन के खात्मे को जम्मू प्रवास कर जाने का दबाव डाल कर सुनिश्चित किया (पुरी कश्मीर, ओरियेंट लांगमैन, १९९४ पृष्ठ-६५)। टीम के पंडित सदस्यों में से एक बलराज पुरी ने मार्च, १९९० में लिखा-'मैंने कश्मीर में मुसलमानों में पंडितों के खिलाफ कोई शत्रुता नहीं पायी, सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की जांच की जरूरत है।` उस समय हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों ने पंडितों के बीच भय और आतंक फैलाने का बीड़ा उठा लिया। 'ढेर सारी गलत सूचनाएं जम्मू और दिल्ली में फैलनी शुरू हुइंर् कि कश्मीर में कितने हिंदू मंदिर और तीर्थ भ्रष्ट या ध्वस्त कर दिये गये। यह केवल आंशिक सच था और यह विस्मयकारी था कि सरकार ने दूरदर्शन को कश्मीर में मंदिरों पर कार्यक्रम करने को नहीं कहा, ताकि लोग आश्वस्त हो सकें कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा` (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, १९९१)। अत: पंडितों के पलायन की समस्या कश्मीरी लोगाों के गुस्से के फलस्वरूप उभरे चरमपंथ, हिंदू सांप्रदायिकों द्वारा फैलाये गये आधारहीन भय के मानस और राज्यपाल जगमोहन के दबाव का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा है न कि हिंदू-मुस्लिम शत्रुता का।

१९८८ से २००० तक जम्मू कश्मीर में चरमपंथ से जुड़ी हिंसा में हुई मौतें हमें बताती हैं कि यह एक सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है। (अनुवाद : ममता श्रीवास्तव)