मई महीने के पूरे चांद का दिन गौतम बुद्ध का जन्म दिन है और ५ मई कार्ल मार्क्स का। इसलिए इस बार जब लिखने बैठा तब इन दोनों का स्मरण स्वाभाविक था। इन दोनों के विचारों ने हमारी पीढ़ी और समय को प्रभावित किया था। पूरी बीसवीं सदी मुख्य तौर से मार्क्सवादी और मार्क्सवाद विरोधी खेमों में बंटी रही। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया को बुद्ध ने भी अपने अंदाज में प्रभावित किया।
कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र जब मैंने पहली दफा पढ़ा था तब हाई स्कूल में था। इस पुस्तिका की अधिकांश बातें हमारे सिर के ऊपर से निकल गयी थीं, फिर भी बहुत कुछ ऐसा था, जिसने सम्मोहित किया था। हमारी पीढ़ी घर में पिता और बाहर में परमपिता से डरने वाली पीढ़ी थी। तमाम नैतिकतायें हमें इनका पालतू होना सिखलाती थीं। इस घोषणा-पत्र के द्वारा हमने वर्ग-संघर्ष, पूंजी, सर्वहारा जैसे कुछ नये शब्द और परिवार, राष्ट्र व आजादी के नये अर्थ पाये थे। 'कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक वर्ग कांपते हैं तो कांपे! सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है और जीतने के लिए उनके पास सारी दुनिया है` जैसे ओजपूर्ण समापन ने हमारे संस्कारों की चूलें हिला दी थीं। वास्तविक आजादी संस्कारों की आजादी होती है। कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र ने हमें आजादी का नया अर्थ दिया था। गांव में बैठ कर हम दुनिया की आजादी का स्वप्न देखते थे। इस आजादी की तलाश में हम साहित्य, राजनीति, इतिहास और विज्ञान के पृष्ठ-दर-पृष्ठ पलटते थे। कभी गोर्की और चेखब मिलते थे, कभी माओ और फिदेल को । इसी क्रम में जब हमने इतिहास में प्रवेश किया तब गौतम बुद्ध से मुलाकात हुई। बुद्ध और मार्क्स में हमने अद्भुत साम्य पाया।
मार्क्स वाया शॉपेनहावर बुद्ध के नाम से तो परिचित थे,उनकी विचारधारा से नहीं। हालांकि मार्क्स ने जर्मन दर्शनशा में ही अपनी जड़ें तलाशी हैं, और हीगेल के दर्शन को ही पैर के बल खड़ा किया है, लेकिन दर्शनशा का कोई विद्यार्थी कह सकता है कि हीगेल कि अपेक्षा बुद्ध मार्क्स के ज्यादा करीब हैं।
बुद्ध के गुजरे ढ़ाई हजार साल हुए और मार्क्स के गुजरे कोई सवा सौ साल। आज बहुत सी स्थितियां बदली हैं। अनेक आविष्कारों और अर्थशा व राजनीति के क्षेत्र में नये प्रयोगों ने हमें नये तरीके से सोचने के लिए विवश किया है। आज न बुद्ध का जमाना है, न मार्क्स का। इसलिए आज हम यदि बुद्ध और मार्क्स को हू-ब-हू वैसे ही अंगीकार करना चाहें जैसे वे अपने जमाने में थे, तो हम अजायबघर की सामग्री बन जायेंगे। लेकिन उन दोनों के अध्ययन का अभाव हमारी विचार प्रणाली को कमजोर करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
हमारे देश में बुद्ध और मार्क्स से लोग बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित हुए। मार्क्स से बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित होने की बात तो समझ में आती है क्योंकि उनका निधन १८८३ में हुआ और वे जर्मन थे, किन्तु बुद्ध तो हमारे ही देश के थे और कोई हजार वर्ष तक उनके धर्म की धूम हमारे देश में रही थी। यह अजीब बात है कि वर्णाश्रम धर्म वालों ने बुद्ध का निर्वासन इस तरह किया था कि वे पुन: विदेशियों के द्वारा ही हमारे बीच आ सके। एडविन अर्नाल्ड के काव्य 'लाइट ऑफ एशिया` के द्वारा उन्नीसवीं सदी के आखिर में हमारे भद्रलोक को बुद्ध की जानकारी मिली। बीसवीं सदी के आरंभ में पुरातात्विक खुदाइयों से जब मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की खुदाई हुई तो आर्य श्रेष्ठता का दंभ ढीला पड़ा, क्योंकि पता चला कि आर्य संस्कृति से पूर्व ही यहां उससे कहीं श्रेष्ठ सभ्यता-संस्कृति मौजूद थी। कुम्हरार, नालंदा, विक्रमशिला आदि की खुदाई के बाद लोगों को अशोक और बुद्ध के बारे में विस्तार से जानकारी मिली।
कभी-कभी सोचता हूं कि जोतिबा फुले को यदि बुद्ध की जानकारी मिल गयी होती तो क्या होता। फुले भारत के दलितों के लिए इतिहास ढूंढते पौराणिक कथाओं में पहुंचे और बलि राजा को अपना नायक बनाया। भारत के लिपिबद्ध इतिहास में उनके लिए कुछ नहीं था। उन्हें अपने लिए एक गॉड की जरूरत थी, निर्मिक नाम से उन्होंने अपना भगवान गढ़ा। फुले को यदि संपूर्णता के साथ बुद्ध और बौद्ध इतिहास की जानकारी होती तो अपनी वैचारिकी को वे अपेक्षाकृत ज्यादा विवेकपूर्ण बनाते और तब संभवत: आधुनिक भारत के इतिहास का चेहरा जरा भिन्न होता। फुले रेगिस्तान के प्यासे हिरण की तरह बहुत भटकते रहे। वे समानता के आग्रही थे। ब्राह्मणवाद से वे मुक्ति चाहते थे। हिन्दू वर्णधर्म का खात्मा चाहते थे। किसानों और शूद्रों का राज चाहते थे। अपनी चेतना से जितना हो सका उन्होंने किया। अंबेडकर को बुद्ध और मार्क्स दोनों उपलब्ध थे, उन्होंने दोनों का उपयोग भी किया। इसलिए वैचारिक रूप से वे ज्यादा दुरुस्त और संतुलित हैं।
आज यह कहना मुश्किल है कि बुद्ध और मार्क्स हमारे समय को कितना प्रभावित कर रहे हैं। कुछ सामाजिक दार्शनिक विचारहीनता के दौर की बात करते हैं। लेकिन जिसे लोग विचारहीनता कहते हैं, वह भी अपने आप में एक विचार है। पुराने जमाने के चार्वाक की बातों को लें तो कमोबेश ऐसी ही विचारहीनता अथवा सभी मान्य विचारों के निषेध की बात वह भी करते थे।आज कहीं-न-कहीं चार्वाकवाद के प्रभाव में हमारा जमाना आ चुका है। कम से कम ऋण लेकर घी पीने की उनकी सलाह (ऋण संस्कृति) तो हमारे समय का सबसे बड़ा विचार बन गया है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि चार्वाकवादियों ने वेद और ईश्वर का चाहे जितना निषेध किया हो सामाजिक परिर्वतन के लिए कुछ नहीं किया। वर्ण धर्म पर वे चुप थे। इसीलिए कुछ मुकम्मल मार्क्सवादी मित्र जब भारतीय दर्शन में लोकायत और चार्वाक से अपनी नजदीकी तलाशते हैं तो मुझे एतराज होता है।
मार्क्स ने बहुत सी बातें की हैं लेकिन उनकी बात जो आज भी हमें उत्साहित करती है वह यह कि अब तक के दार्शनिकों ने विभिन्न तरह से विश्व के स्वरूप की व्याख्या की है, लेकिन सवाल यह है कि इसे (विश्व समाज को) बदला कैसे जाय।
बुद्ध और मार्क्स यहां एक साथ नजर आते हैं।
- प्रेमकुमार मणि