June 3, 2015

बुद्ध, मार्क्स और आज की दुनिया



मई महीने के पूरे चांद का दिन गौतम बुद्ध का जन्म दिन है और ५ मई कार्ल मार्क्स का। इसलिए इस बार जब लिखने बैठा तब इन दोनों का स्मरण स्वाभाविक था। इन दोनों के विचारों ने हमारी पीढ़ी और समय को प्रभावित किया था। पूरी बीसवीं सदी मुख्य तौर से मार्क्सवादी और मार्क्सवाद विरोधी खेमों में बंटी रही। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया को बुद्ध ने भी अपने अंदाज में प्रभावित किया।

कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र जब मैंने पहली दफा पढ़ा था तब हाई स्कूल में था। इस पुस्तिका की अधिकांश बातें हमारे सिर के ऊपर से निकल गयी थीं, फिर भी बहुत कुछ ऐसा था, जिसने सम्मोहित किया था। हमारी पीढ़ी घर में पिता और बाहर में परमपिता से डरने वाली पीढ़ी थी। तमाम नैतिकतायें हमें इनका पालतू होना सिखलाती थीं। इस घोषणा-पत्र के द्वारा हमने वर्ग-संघर्ष, पूंजी, सर्वहारा जैसे कुछ नये शब्द और परिवार, राष्ट्र व आजादी के नये अर्थ पाये थे। 'कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक वर्ग कांपते हैं तो कांपे! सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है और जीतने के लिए उनके पास सारी दुनिया है` जैसे ओजपूर्ण समापन ने हमारे संस्कारों की चूलें हिला दी थीं। वास्तविक आजादी संस्कारों की आजादी होती है। कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र ने हमें आजादी का नया अर्थ दिया था। गांव में बैठ कर हम दुनिया की आजादी का स्वप्न देखते थे। इस आजादी की तलाश में हम साहित्य, राजनीति, इतिहास और विज्ञान के पृष्ठ-दर-पृष्ठ पलटते थे। कभी गोर्की और चेखब मिलते थे, कभी माओ और फिदेल को । इसी क्रम में जब हमने इतिहास में प्रवेश किया तब गौतम बुद्ध से मुलाकात हुई। बुद्ध और मार्क्स में हमने अद्भुत साम्य पाया।

मार्क्स वाया शॉपेनहावर बुद्ध के नाम से तो परिचित थे,उनकी विचारधारा से नहीं। हालांकि मार्क्स ने जर्मन दर्शनशा में ही अपनी जड़ें तलाशी हैं, और हीगेल के दर्शन को ही पैर के बल खड़ा किया है, लेकिन दर्शनशा का कोई विद्यार्थी कह सकता है कि हीगेल कि अपेक्षा बुद्ध मार्क्स के ज्यादा करीब हैं।

बुद्ध के गुजरे ढ़ाई हजार साल हुए और मार्क्स के गुजरे कोई सवा सौ साल। आज बहुत सी स्थितियां बदली हैं। अनेक आविष्कारों और अर्थशा व राजनीति के क्षेत्र में नये प्रयोगों ने हमें नये तरीके से सोचने के लिए विवश किया है। आज न बुद्ध का जमाना है, न मार्क्स का। इसलिए आज हम यदि बुद्ध और मार्क्स को हू-ब-हू वैसे ही अंगीकार करना चाहें जैसे वे अपने जमाने में थे, तो हम अजायबघर की सामग्री बन जायेंगे। लेकिन उन दोनों के अध्ययन का अभाव हमारी विचार प्रणाली को कमजोर करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

हमारे देश में बुद्ध और मार्क्स से लोग बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित हुए। मार्क्स से बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित होने की बात तो समझ में आती है क्योंकि उनका निधन १८८३ में हुआ और वे जर्मन थे, किन्तु बुद्ध तो हमारे ही देश के थे और कोई हजार वर्ष तक उनके धर्म की धूम हमारे देश में रही थी। यह अजीब बात है कि वर्णाश्रम धर्म वालों ने बुद्ध का निर्वासन इस तरह किया था कि वे पुन: विदेशियों के द्वारा ही हमारे बीच आ सके। एडविन अर्नाल्ड के काव्य 'लाइट ऑफ एशिया` के द्वारा उन्नीसवीं सदी के आखिर में हमारे भद्रलोक को बुद्ध की जानकारी मिली। बीसवीं सदी के आरंभ में पुरातात्विक खुदाइयों से जब मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की खुदाई हुई तो आर्य श्रेष्ठता का दंभ ढीला पड़ा, क्योंकि पता चला कि आर्य संस्कृति से पूर्व ही यहां उससे कहीं श्रेष्ठ सभ्यता-संस्कृति मौजूद थी। कुम्हरार, नालंदा, विक्रमशिला आदि की खुदाई के बाद लोगों को अशोक और बुद्ध के बारे में विस्तार से जानकारी मिली।

कभी-कभी सोचता हूं कि जोतिबा फुले को यदि बुद्ध की जानकारी मिल गयी होती तो क्या होता। फुले भारत के दलितों के लिए इतिहास ढूंढते पौराणिक कथाओं में पहुंचे और बलि राजा को अपना नायक बनाया। भारत के लिपिबद्ध इतिहास में उनके लिए कुछ नहीं था। उन्हें अपने लिए एक गॉड की जरूरत थी, निर्मिक नाम से उन्होंने अपना भगवान गढ़ा। फुले को यदि संपूर्णता के साथ बुद्ध और बौद्ध इतिहास की जानकारी होती तो अपनी वैचारिकी को वे अपेक्षाकृत ज्यादा विवेकपूर्ण बनाते और तब संभवत: आधुनिक भारत के इतिहास का चेहरा जरा भिन्न होता। फुले रेगिस्तान के प्यासे हिरण की तरह बहुत भटकते रहे। वे समानता के आग्रही थे। ब्राह्मणवाद से वे मुक्ति चाहते थे। हिन्दू वर्णधर्म का खात्मा चाहते थे। किसानों और शूद्रों का राज चाहते थे। अपनी चेतना से जितना हो सका उन्होंने किया। अंबेडकर को बुद्ध और मार्क्स दोनों उपलब्ध थे, उन्होंने दोनों का उपयोग भी किया। इसलिए वैचारिक रूप से वे ज्यादा दुरुस्त और संतुलित हैं।

आज यह कहना मुश्किल है कि बुद्ध और मार्क्स हमारे समय को कितना प्रभावित कर रहे हैं। कुछ सामाजिक दार्शनिक विचारहीनता के दौर की बात करते हैं। लेकिन जिसे लोग विचारहीनता कहते हैं, वह भी अपने आप में एक विचार है। पुराने जमाने के चार्वाक की बातों को लें तो कमोबेश ऐसी ही विचारहीनता अथवा सभी मान्य विचारों के निषेध की बात वह भी करते थे।आज कहीं-न-कहीं चार्वाकवाद के प्रभाव में हमारा जमाना आ चुका है। कम से कम ऋण लेकर घी पीने की उनकी सलाह (ऋण संस्कृति) तो हमारे समय का सबसे बड़ा विचार बन गया है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि चार्वाकवादियों ने वेद और ईश्वर का चाहे जितना निषेध किया हो सामाजिक परिर्वतन के लिए कुछ नहीं किया। वर्ण धर्म पर वे चुप थे। इसीलिए कुछ मुकम्मल मार्क्सवादी मित्र जब भारतीय दर्शन में लोकायत और चार्वाक से अपनी नजदीकी तलाशते हैं तो मुझे एतराज होता है।

मार्क्स ने बहुत सी बातें की हैं लेकिन उनकी बात जो आज भी हमें उत्साहित करती है वह यह कि अब तक के दार्शनिकों ने विभिन्न तरह से विश्व के स्वरूप की व्याख्या की है, लेकिन सवाल यह है कि इसे (विश्व समाज को) बदला कैसे जाय।
बुद्ध और मार्क्स यहां एक साथ नजर आते हैं।
  • प्रेमकुमार मणि

October 8, 2009

छोड़ दो





  • प्रणय प्रियंवद 


छोड़ दो थोड़ा-सा दूध थनों में
गायों के बच्चों के लिए
पेड़ में कुछ टहनियां छोड़ दो
नई कोपलों के आने के लिए
थोड़ी-सी हवा छोड़ दो
गर्भवती स्त्रियों  के लिए
थोड़ा सा जल
मछलियों के लिए

थोड़ा-सा कागज
और रोशनाई थोड़ी-सी
पहली बार प्रेम करने वाली
लड़कियों के लिए।




गेट न.-६, केशवपुर, जमालपुर, मुंगेर, बिहार. मो.-९४३१६१३७८९

आत्महंता किसानों के लिए


  • मोहन साहिल 


देखो
अभी-अभी सरसो के पीले फूलों पर
आया है भंवरा
खामोश उदास तितलियां
फड़फड़ा उठी हैं
मरने की बात अभी मत सोचो

आम की डालियों पर आ गया है बौर
दूध उतर आया है गेहूं की बालियों में
मत करो ऐसे में मरने की बात
खेतों की यह मिट्टी
कितना जहर पीकर भी जिंदा है
हर कतरा उसका
जीवन उगाने को तत्पर

देखो
इस मिट्टी ने तुम्हारे छाले सहलाने को
उगाए हैं कपास के नर्म फूल
मिठास से भर दिया है गन्ना।


 शाली बाजार, ठियोग, जिला : शिमला. मो.-९८१७०१८०५२

भूलना


  • कल्लोल चक्रवर्ती 


मैं अक्सर भूल जाता हूँ अपना छाता
कलम और रूमाल
दफ्तर जाते हुए भूलता हूँ
कई छोटे-छोटे काम।
कई बार बस पर बेध्यानी में भूलता हूँ
अपना स्टॉप
और उतरकर मुड़ता हूँ पीछे।
ऑफिस में अचानक कई महीने बाद पता चलता है
कि पुराना चपरासी नौकरी छोड़ गया है
और ठीक वैसी ही लाचारी लिए
जो मुसकराता हुआ चेहरा सामने है
वह उसका स्थानापन्न है।
भूलना कोई बीमारी नहीं है
यह दरअसल हमारी प्राथमिकता पर निर्भर करता है
कि किसी चीज का हमारे लिए कितना महत्व है।
जैसे इतने बरस बाद मैं नहीं भूल पाता
पहली कक्षा के सखा कन्हैया का चेहरा
जिसने माचिस की डिब्बी में
एक कौड़ी भेंट की थी मुझे।
जैसे लगातार नौकरियां बदलते रहने के बावजूद
अपने क्रूर मालिकों के चेहरे मुझे याद हैं।


जी-१, १/२२, राजेंद्र नगर, सेक्टर-५, साहिबाबाद, उत्तर प्रदेश. मो.-९९७१५८६११८

एकांत




-विक्रम मुसाफिर


१.

भय की संकरी गली
नि:शब्द है
यातना शिविरों से
कूच कर गये हैं पूर्वज
चेतनाहीन उदास पहाड़
पगडंडियां चुन रहे हैं
अथाह मौन
क्षितिज के घुटनों पर
पनप रहा है
पत्थरों की नसों में
धधक रहा है प्रणय
विरह की चारागाहों में चुपचाप
उतर आया हूं मैं
एकान्त के जलस्रोतों में बहकर।

२.
स्मृति के पिरामिड में
मेरा एकांत
भटकता रहा
अन्वेषक प्रेत की तरह।


ग्राम-पो-श्रीवन, ठियोग, जिला : शिमला, हिमाचल प्रदेश

डेमोक्रेसी के इस राज में


- लनचेनबा मीतै



मणिपुरी कविता/अनुवाद : जगमल सिंह                

गड्ढे में नाले में कीचड़ है
राजपथ सना है कीचड़ से
पड़ा कूड़े का ढेर सब दरवाजों पर
अस्पताल भी बना है
कूड़े का ढेर।

बाजार में होता, सामानों का मोल-भाव
ऑफिस में भी होता नौकरियों का मोल-भाव
एल.पी.स्कूल में लड़ते हैं बच्चे
एसेम्बली हॉल में लड़ते हैं विधायक।
गली-गली में चोरी करते हैं लोग
राजमहल में भी चोरी करते हैं अधिकारी।
अधिकारियों द्वारा पकड़े गए जन-साधारण पर
पहरा देते हैं पहरेदार।
अधिकारी और राजा का भी
पहरा देते हैं पहरेदार।
वेश्याएं बेचती हैं वासनायुक्त शरीर
जिन्हें खरीदते हैं राजा और अधिकारी

यहां है डेमोक्रेसी का शासन
जिसकी है-एक ही रीति
जिसका है एक ही स्वरूप।

अनुवादक : २/४८, प्रताप नगर, व्यावर, राजस्थान-३०५९०१. मो.-९४१३९५०११७

February 11, 2008

साहित्‍य वार्षिकी 2008 की विषय सूची


जन विकल्प की साहित्य वार्षिकी 2008 अब उपलब्ध


यह अंक

कहानियां
  1. संजीव- गली के मोड पर
  2. संतोष दीक्षित - पास फेल
  3. विमल कुमार -हंगर फ्री इंडिया
  4. कविता - समांतर
  5. अरविंद शेष-आबो हवा
  6. रणेंद्र - हमन को होशियारी क्‍या
कविताएं
  • 1 संजय कुंदन
  • 2 आर चेतन क्रांति
  • 3 सुंदरचंद ठाकुर
  • 4 पवन करण
  • 5कुमार अरूण
  • 6कुमार मुकुल
  • 7 मधु शर्मा
  • 8 प्रियदर्शन
  • 9 विनय कुमार
  • 10 मदन कश्‍यप
  • 11 शंकर प्रलामी
  • 12 बसंत त्रिपाठी
  • 13 अरूण आदित्‍य
लेख
  • 1 सुधीश पचौरी - अत्‍तरआधुनिकता और हिंदी का द्वंद्व
  • 2 अरविंद कुमार- आधुनिक हिंदी की चुनौतियां
धरोहर
  • 1 जवाहरलाल नेहरू - हिंदी में आत्‍मआलोचना का अभाव है

कहानियां
  • 1 गुरदयाल सिंह - ज्ञान विकार है
  • 2 बाबुराव बागुल - विद्रोह
  • 3 प्‍यास - मोहनदास नैमिश्‍राय
साक्षात्‍कार
  • 1 प्रतिभा आपको अकेला कर देती है राजेद्र यादव से स्‍वतंत्र मिश्र की बातचीत
कविताएं
  • 1 बाबुराब बागुल
  • 2ज्ञानेद्रपति
  • 3 चंद्रकांत देवताले
  • 4 विष्‍णु नागर
  • 5 भगवत रावत
  • 6 विजेंद्र
  • 7 अनूप सेठी
  • 8 नीलाभ
  • 9 खगेंद्र ठाकुर
उपन्‍यास अंश
  1. श्यामबिहारी श्यामल - शब् सत्ता

कहानियां
  1. राजकुमार राकेश- यह भी युद्ध है
  2. अनंतकुमार सिंह - बसंती बुआ
  3. शेखर मलिल्‍क- आखिरी औरत
कविताएं
‍‍
  1. रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
  2. प्रमोद रंजन
  3. मुसाफिर बैठा
  4. पंकज पराशर
  5. मृत्‍युंजय प्रभाकर
  6. रोहित प्रकाश
  7. रमेश ऋतंभर
  8. शहंशाह आलम
  9. आशीष कुमार
  10. अजेय
  11. प्रणय प्रियंवद
  12. मोहन साहिल
  13. कल्‍लोल चक्रवर्ती
  14. विक्रम मुसाफिर
  15. लनचेबा मीतै
पृष्‍ठ -236, मूल्‍य - 50 रूपए.
संपर्क : 2 सूर्य विहार कॉलोनी, आशियाना नगर, पटना-800025
email : pramodrnjn@gmail.com