December 24, 2007

हाशिये के लोग और पंचायती राज अधिनियम

समकाल


  • लालचंद ढिस्सा

सत्‍ता , शक्ति और प्रबन्धन के विकेन्द्रीकरण और जैव विविधता का सीधा सम्बन्ध होना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक हाशिये के आदमी के शोषण की सम्भावना बनी रहेगी। क्योंकि १९५० यानी कि संविधान के लागू होने तक विद्यमान सत्ता, शक्ति और प्रबन्धन के विकेन्द्रीकरण का ही परिणाम है, देश की चौथाई से अधिक जनसंख्या का मानवेत्तर सामाजिक स्तरीकरण, प्रस्थिति तथा शोषण। आज देश की जनसंख्या के एक महत्वपूर्ण हिस्से की दशा में बहुत सुधार हुआ है तो उसका कारण है सत्ता, शक्ति और प्रबंधन का तथाकथित केन्द्रीकरण। यह देश विविधताओं से भरा है, कई रंग, कई रूप, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की भाषा बोलियां, तरह-तरह का स्वाद, तरह-तरह की खूशबू और न जाने क्या-क्या है? इसलिए विकेन्द्रीकरण की जब भी बात होगी, विविधता का प्रश्न अवश्य उठेगा। यह ध्यान रखना होगा कि विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में कहीं शक्तिहीन, अल्पसंख्यक, कमजोर और हाशिये की जाति-प्रजातियों के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है। विशेषकर उन समूहों या समुदायों के अस्तित्व और हित का ध्यान रखा जाना अनिवार्य होगा जो आज भी हाशिये पर हैं । क्योंकि यह देखा गया है कि अनेक बार जाने-अनजाने ऐसे बहुत से कार्य हो जाते हैं जिसके परिणाम कुछ लोगों के लिए अनर्थकारी हो जाते हैं। एक अच्छे और नेक उद्देश्य को लेकर किया गया कार्य कैसे कुछ समुदायों या समूहों के लिए अभिशाप बन जाता है, इसका उदाहरण है जनजातियों के अस्तित्व और हितों को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया केन्द्रीय (संसद) विधान-पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ ।

उपरोक्त विधान ने अनुसूचित जनजातिय समाजों (गैर आदिम) के अन्दर बहुत बड़े प्रश्न खड़े किये हैं। इसके परिणामस्वरूप गैर आदिम जनजातिय समाजों के लिए बहुत बड़े हिस्से को उनके प्रजातांत्रिक एवं संवैधानिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ा है। आदिम जनजातिय समुदायों के संदर्भ में तो ये वैधानिक प्रावधान सही और उचित हो सकते हैं लेकिन गैर आदिम जनजातिय समाजों के लिए यह अधिनियम अभिशाप बन गया है। इस अधिनियम के साथ जुड़े हुए व्यक्तियों एवं अभिकरणों ने इस बात की कल्पना तक नहीं की होगी कि उनका यह कदम एक विशेष वर्ग के लिए इतना अनर्थकारी प्रमाणित होगा। उन गैर आदिम जनजातिय समाजों में जहां पर हिन्दू धर्म के तर्ज पर सामाजिक स्तरीकरण विद्यमान है, के दलितों को पूर्ण रूप से प्रभुवर्ग के शोषण के लिए उपलब्ध करवा दिया गया है। भारत के अनुसूचित जनजातिय समाजों के एक करोड़ से भी अधिक दलितों को, जो आज भी हाशिये पर हैं, इस अधिनियम के चलते पंचायतों में प्रतिनिधित्व तक प्राप्त नहीं है। केंद्रीय (संसद) विधान पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ को हिमाचल प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों के संदर्भ में १९९७ में हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने समाविष्ट कर लिया। परिणामस्वरूप अनुसूचित क्षेत्र जिला किन्नौर के २८ प्रतिशत दलित (१९९१ की जनगणना के अनुसार) के लिए अनुसूचित जाति का आरक्षण वर्ष २००० के पंचायत चुनावों से समाप्त कर दिया गया। फलस्वरूप २००१ की जनगणना में उनकी जनसंख्या में भारी कमी दर्ज की गई और जो १९९१ में १९१५३ थी वह २००१ में ७६२५ रह गई। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों का भी हाल इससे अच्छा नहीं है। ज्ञातव्य है कि अनुसूचित क्षेत्र लहौल के संदर्भ में पंचायत प्रधानों के पदों में आरक्षण नहीं रखने संबंधित अधिसूचना को हि०प्र० उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है, और न्यायलय के निर्णय की प्रतीक्षा की जा रही है। इसलिए इस मामले में अधिक कहना उचित नहीं होगा क्योंकि मामला न्यायालय के विचाराधीन है।


यह सब क्यों हुआ? इसके दो करण हैं : पहला कारण यह है कि इस देश के हर आदमी, विशेषकर तथाकथित शिक्षित और अगड़ों को लगता है कि वे हर तरह से पूर्ण हैं, ज्ञान-विज्ञान आदि से। दूसरा सदियों से चली आ रही षड़यंत्र की आदत, जिससे आज भी निजात नहीं पाई जा सकी है। जिसके चलते तथाकथित बुद्धिजीवियों, विद्वानों, नेताओं, नौकरशाहों, प्रभूवर्ग एवं निहित स्वार्थों ने ऐसा माहौल बनाया जिससे कि जनजातिय, आदिवासी, कवायली, गिरिजन, वनवासी, अनुसूचित जनजाति आदि (न जाने कितने नाम दिये जा चुके हैं) के बारे में आम आदमी के दिमाग में एक भयंकर और कौतूहलपूर्ण विचार आ जाता है। जनजातिय व्यक्ति के रूप में दिमाग में ऐसे जानवर की तस्वीर बन जाती है जिसे 'शोकेस` में डालकर रखा जा सकता हो। पंचायती राज अधिनियम विशेषकर पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ के लागू होने से इस प्रकार की विसंगतियां क्यों पैदा हुइंर्? इसका कारण है बुद्धिजीवियों, नीतिनिर्धारकों, व्यवस्थापकों द्वारा समस्त अनुसूचित जनजातिय समाज या समूहों को समजातीय ( Homogeneous) और निहित स्वार्थों तथा इन समाजों एवं समूहों के प्रभु जातियों एवं शोषकों के द्वारा अनुसूचित जनजातिय समाजों एवं समूहों को समजातीय ( Homogeneous) एवं एकाश्मी (Monolithik) प्रस्तुत करना, जो आदिम जनजातियों के संदर्भ में तो उचित हो सकता है, लेकिन गैर आदिम जनजातियों के संदर्भ में इस प्रयोग से अनर्थ हो रहा है। इन गैर आदिम जनजातियों में हिन्दू समाज की तरह ही जाति प्रथा प्रचलित है और छुआ-छूत, असमानता और शोषण भी उसी तरह रहा है। लेकिन संविधान के लागू होने के बाद जहां हिन्दू, बौद्ध तथा सिख समाज के दलितों को सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ संवैधानिक सुरक्षाएं तथा सुविधाएं मिलीं वहीं जनजातिय दलितों या अछूतों को समाज के प्रभू वर्गों के समकक्ष बनाकर उनके साथ सामाजिक अन्याय किया गया। इसी कारण आज उनकी दशा तुलनात्मक दृष्टि से पहले से बदतर हो गई है।

अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों, बनवासियों, गिरिजनों आदि के नामों से जाने जाने वाले समूहों, समुदायों और समाजों के बारे में जन साधारण के अन्दर कई भ्रान्तियां हैं। मैदानी ईलाकों का आदमी इन सबको एक ही समझने की गलती कर बैठता है। यहां तक कि बुद्धिजीवी वर्ग भी इनके अंतरों को गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं करते। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनमें एक या सभी समूह, समुदाय या समाज अनुसूचित जनजाति के तो हो सकते हैं, लेकिन सभी एक ही जनजाति के नहीं हो सकते। संविधान की पांचवीं या छठी अनुसूचि में सम्मिलित जो भी समूह, समुदाय या समाज हैं, वे सबके सब अनुसूचित जनजाति में तो आते है परन्तु सब के सब आदिवासी या आदिम जनजाति के नहीं है। जनजातियों के प्रति साधारणतया तथाकथित सम्य समाज का दृष्टिकोण और कार्यपद्धति संदेहपूर्ण रही है। ऐतिहासिक काल से ही तथाकथित सभ्य लोगों ने जनजाति के लोगों को ठग कर या डरा-धमकाकर अपने स्वार्थ हल किये हैं। इनको चिड़ियाघर के जानवरों की तरह प्रदर्शन की वस्तु बना कर पेश किया जाता रहा है, जो आज भी इनमें से ही कुछ की मदद से लगातार चल रहा है। स्वतंत्र भारत के संविधान के बनने, लागू होने और उसमें किए गए इन जनजातियों के हित रक्षा के प्रावधानों के रहते, तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदारों, स्वस्थापित विद्वानों, समाजसुधारकों, राजनेताओं, प्रशासकों तथा विशेषज्ञों ने इन अनुसूचित जनजातियों के प्रस्तुतिकरण में अपने-अपने स्वार्थों का ध्यान रखा है। इसी के कारण आज इन अनुसूचित जनजातियों के अन्दर भी अनेक समस्याएं और अन्तर्विरोध पैदा हुए हैं। इसी को सामने रखते हुए अनुसूचित जनजातियों के स्थापित मानकों, विधानों, अवधारणा तथा प्रस्थिति के ऊपर यह लेख लिखा गया है।


यहां जनजाति ( Tribe) अनुसूचित जनजाति ( Scheduled Tribe ) के बारे में जानना आवश्यक है। जनजाति (Tribe) एक नृवैज्ञानिक अवधारणा है, जबकि अनुसूचित जनजाति ( Scheduled Tribe ) एक संवैधानिक नामावली है। आदिम या आदिवासी अवधारणा को अंग्रेजी के एबोर्जिन ( Aborgin) या ट्राईब ( Tribe) नामावली के हिन्दू रूपांतर के तौर पर अधिक निकट माना जा सकता है, जबकि अनुसूचित जनजाति एक संवैधानिक नामावली है जो उन सभी समूहों, समुदायों तथा समाजों के लिए प्रयुक्त होती है जो भारत के संविधान के पांचवीं और छठी अनुसूचि में सम्मिलित हैं । जैसा कि हमने ऊपर लिखा है अनुसूचित जनजाति, एक 'सिंगल` समुदाय या समाज नहीं है। इस में समूह, समुदाय और समाज तीनों शामिल हैं। यहां पर इस बात को समझना आवश्यक है कि अनुसूचित जनजातियों का संवैधानिक तथा नृवैज्ञानिक वर्गीकरण क्या है?

क) संवैधानिक

Constitutional आधार पर अनुसूचित जनजाति के तीन वर्ग हैं :

१. अनुसूचित (क्षेत्र) जनजातियां।
२. अधिसूचित जनजातियां।
३. यायावर जनजातियां।


१. अनुसूचित (क्षेत्र) जनजातियां ( Scheduled (Area) Tribe ) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जो क्षेत्र विशेष से सम्बन्ध रखते हैं, जिन्हें भौगोलिक तथा विशिष्ट सांस्कृतिक आधार पर अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया हो। हिमाचल प्रदेश में इसके उदाहरण हैं लाहौल-स्पिति, किन्नौर, पांगी, भरमौर क्षेत्र और स्वंगला, बौध, किन्नौरा, पंगवाला, गद्दी (चम्बा जिला के भरमौर जनजातिय क्षेत्र के गद्दी समाज) आदि।

२.) अधिसूचित जनजातियां .(Denotified Tribes) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जिन्हें उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान तथा पिछड़ेपन के कारण अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया हो।
उदाहरण-हिमाचल प्रदेश में खम्पा, गद्दी (भरमौर के बाहर, जिला चम्बा तथा कांगड़ा आदि के गद्दी समाज) आदि।

३.) यायावर जनजातियां .(Nomadic Tribes) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जिन्हें उनके पिछड़ेपन, सांस्कृतिक विशिष्टता तथा यायावरी के कारण, जनजाति घोषित किया गया हो। इसका उदाहरण हिमाचल प्रदेश के गुज्जर आदि हैं।


ख. नृवैज्ञानिक

(Anthropological) आधार पर अनुसूचित जनजातियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-

१. आदिम जनजातियां।

२. गैर आदिम जनजातियां।



१. आदिम जनजातियां : Primitive Tribes : इस वर्ग में वे अनुसूचित जनजातियां आती हैं जो समाजशा के समुदाय की परिभाषा में आती हैं । सभी आदिम जनजातियां परम्परा से प्रकृति पूजक होती हैं। जिसका अर्थ यह है कि उनमें हिन्दू समाज की तरह जन्म पर आधारित सामाजिक स्तरीकरण या जातिप्रथा (ऊंच-नीच) प्रचलित या मान्य नहीं है अपितु उनकी अपनी एक अलग धार्मिक पहचान तथा सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था है। भारत सरकार के जनजातिय मामलों के मंत्रालय के अनुसार भारत में सिर्फ ७५ आदिम जनजातियां दर्ज हैं।

२. गैर आदिम जनजातियां Non Primitive Tribes : गैर आदिम जनजातियों में वे सब जनजातियां शामिल हैं जो समाजशा के समाज और समूह की परिभाषा की परिधि में आती हैं । अर्थ यह है कि इस प्रकार की अनुसूचित जनजातियों में हिन्दू या अन्य धर्म की समस्त विशेषताएं मौजूद हैं। इसमें हिन्दू धर्म की जाति प्रथा (छुआछूत) भी शामिल है। भारत सरकार की अधिसूचना के अनुसार इस वर्ग में लगभग ७०० अनुसूचित जनजातियां हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि वे सभी "अनुसूचित जनजाति" की तो हैं लेकिन "जनजाति" की नहीं। इसका एक उदाहरण है हिमाचल प्रदेश जहां पर अनुसूचित जनजातियों की संख्या १० है परन्तु इसमें से कोई भी आदिम जनजाति के वर्ग में नहीं आती है। इस विषय में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आज तक अनुसूचित जनजातिय (गैर आदिम) के प्रभुवर्ग के लोग और तथाकथित बुद्धिजीवी आदि निहित स्वार्थी लोग, ईसाई और इस्लाम के ठेकेदारों की तरह यही प्रचारित करते रहे हैं कि अनुसूचित जनजातियों में जातिप्रथा (ऊंच-नीच) विद्यमान नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि गैर आदिम जनजातियों में से अधिकतर हिन्दू धर्म को मानने वाले समाज हैं । यदि हिन्दू धर्म को मानने वाला समाज है तो इनमें हिन्दू धर्म की समस्त विशेषताएं तो विद्यमान होंगी ही और हिन्दू धर्म की पहली और सबसे बड़ी विशेषता है, इसकी जातिप्रथा (छुआछूत)।

जनजातिय दलित देशवासियों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे इस संदर्भ में अपने भ्रमों को दूर कर सच्चाई को समझें। हम जनजातिय दलित भी इस देश को अपना समझते हैं, इसके लिए कुछ करना चाहते हैं। क्या आजादी के ६० वर्षों के बाद भी हमें इस देश को अपना समझने का हक नहीं मिलेगा?

लालचंद ढिस्सा जनजातीय दलित संघ के अध्यक्ष हैं।

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